सुहागनी रंग- निधि भार्गव

तेरे साथ की तमन्ना करते करते
न जाने कितने सफ़र
अकेले तय कर चुकी हूं मैं
कितनी ही सुबहों को रातों की
ये बैचेनियां सौंपी है मैंने
खुशनुमा उजालों को बटोरने
का भरसक प्रयास भी अब
निश्फल हो चुका है
भीगी कातर निगाहें बस
उस एक राह पर टिकी रहती है
जहां से आती हुई हल्की सी
ध्वनि भी तेरे होने का आभास
करा जाती है मुझे..
मैं तो आज भी इबादतों की
झोली फैलाए बैठी हूं
पुकारती हूं तुम्हें कि तुम
आओ और बिछोह के अधूरे
कालेपन को सुहागनी रंगो में
बदल दो. आतुर हैं अब
प्रतीक्षाएं भी मेरी तरह
तुम्हारी आस में

-निधि भार्गव मानवी