सोलह श्रृंगार- आनंद सिंह चौहान

यौवन पर रूप श्रृंगार की छटाएं यूँ बिखर रही हैं
मानो सूरज की प्रथम किरण अंधियारे में उतर रही है,
चमकती बिंदी उन्नत भाल का चुंबन कर रही है
काजल से भरी दो कटारें नयनों की, घायल कर रही हैं
लटों से उलझ रही हैं मोगरे की मदमस्त कलियां
प्रीत की अँगूठी उँगली में, है विश्वास की डलिया
हाथों में मेहंदी और मांग में सिंदूर की लालिमा
मानो शरमा के छुप गई है अँधेरे की कालिमा
बाजूओं में कसे बाजूबंध, कानों में झुमके लटक रहे हैं
सूर्ख लाल जोड़े पर सुनहरे तारे भटक रहे हैं
मानो आसमां से उतर कर अप्सरा जमीं पर उतर आई है
संग अपने वो आभूषणों की दुकान सहेज लाई है
नाक की नथ अग्नि के पावन फेरों की दुहाई है
सास के दिए कंगन हाथों में, माँ की भरपाई है
टीका माँग का जैसे शिवजटा से गंगा उतर आई है
गले का मंगलसूत्र पिया को दिए वचनों की दुहाई है
कमरबंध पतली कमर का आलिंगन कर रहा है
पायलों की झनक से मन में उल्लास भर रहा है
पिया की याद बन बिछियाँ उँगली पर चढ़ आई है
सोलह श्रृंगार कर नवयौवना थोड़ा सा शरमाई है

-आनंद सिंह चौहान
बीकानेर