है प्रेम अपना- स्नेहलता नीर

हर शय बनी है ऐसे,
जैसे कि हों शरारे।
गर्दिश में फँस गए हैं,
तकदीर के सितारे।
है प्रेम अपना गंगा,
दो तट सनम हैं हम तुम,

कैसे मिलेंगे बोलो,
नदिया के दो किनारे।।

बेताब दिल बहुत हैं,
आँखें भी मुंतज़र हैं।
दीदार-ए-यार कब हो,
राहों पे ही नजर है।
तुम भी तड़प रही हो,
मैं भी तड़प रहा हूँ।

दोनों बहा रहे हैं,
अश्कों के आज धारे।
कैसे मिलेंगे बोलो,
नदिया के दो किनारे।।

पहरों की बेड़ियों में,
है प्यार आज जकड़ा।
उल्फ़त बनी हमारी,
जैसे कि ज़ुर्म तगड़ा।
दुश्मन बना ज़माना,
ज़ख़्मों पे ज़ख्म देता।

कोई नही है ऐसा,
इस गर्त से उबारे।
कैसे मिलेंगे बोलो,
नदिया के दो किनारे।।

जागी हुई हैं आँखें,
पर ख़्वाब हैं तुम्हारे।
रटता है नाम दिल भी,
क्या साँझ क्या सकारे।
गर्दन पे आज ख़ंजर,
अब जान पर बनी है,

देती सदा उधर तुम,
दिल भी इधर पुकारे।
कैसे मिलेंगे बोलो,
नदिया के दो किनारे।।

-स्नेहलता नीर