बेवजह उलझे रहे: हरिआनंद

तुमसे तो झूठ से सच खरीदा न गया
इसीलिये हमसे भी ज्यादा तराशा न गया
अपनी पे आते पत्थर से हीरा बना देते
तुमसे तो सच भी सच से बोला न गया

बेवजह उलझे रहे तुम अपनी ही अदाकारियों में
जब सुलझ कर खिसक रही थी
ज़िन्दगी किनारे में
तुमसे तो कुछ पल
किनारे पर भी ठहरा भी न गया

हरिआनंद