दरवाज़े पर दस्तक: जसवीर त्यागी

जिंदगी की बुढ़ापे भरी साँझ में
जब सन्नाटे और सूनेपन का साँप
पसरा होता है परिवेश में

तब अचानक लगता है
दरवाजे पर दस्तक हो रही है

एक बूढ़ी महिला
आँखों के चश्मे को संभालती
छड़ी के सहारे
धीरे-धीरे सरकती है
दरवाजे की ओर

आस और उत्सुकता के हाथों से
खोलती है दरवाजा
और पुकारती है—‘कौन’..?

कौन——-कौन….?
घूमता-गूँजता रहता है
हवा में देर तक

हर बार की तरह
कहीं कोई नहीं होता

द्वंद्व के दलदल में फंसी वृद्धा
बूढ़ी निगाहों से देखती है
द्वार पर खड़ा
किसी अड़ियल घोड़े-सा इंतजार

जो वृद्धा के बार-बार कहने पर भी
न देहरी से बाहर जाता है
और न ही
देहरी के अंदर करता है प्रवेश

कशमकश और असमंजस में
घिरी बुजुर्ग स्त्री
न द्वार खोल पाती है
और न ही कर पाती है बंद

जसवीर त्यागी