गोयठा थापती महिलाएं: सीमा संगसार

गंधाती गोबरों के बीच
जीवन के सौन्दर्य को तलाशती
न थकती है, न रुकती है
सधे हाथों से मकई की रोटी थापने वाली
उनकी वह हथेलियां
आदी हो चुकी हैं
मोटे-मोटे लोई को
वृताकार आकार देने में…

धूसर मटमैली दीवारों पर
अपने भाग्य की इबारत को थापती हुई
ये महिलाएं कहाँ भूल पाती हैं
अपने ब्याह के कोहबर में
अपने हाथों की रंगीन छाप को उकेरना…

छाप दी गई उनकी उंगलियों के निशान
कभी नहीं मिटते न मायके की दीवारों पर
और न ही गोयठे पर
छप जाती हैं उनकी हथेलियों पर
सदा के लिए उनके भाग्य की लकीरें…

सुलगते गोयठों के साथ ही जलती हैं
उसकी जीवन की तमाम इच्छाएँ

लाल महावर से होते हुए
गंधाती गोबरों के बीच
हर रोज छाप आती हैं अपनी पहचान…

सीमा संगसार