ऐसा नहीं था: रूची शाही

ऐसा नहीं था
कि उसे रास्ते की पहचान नहीं थी
पर उसके पांव बस कमजोर थे
बस इसलिए वो ढूँढती रही सहारा
और पुरुषों ने लपक लिया उन्हें

पर मन से कमजोर नहीं थी
चल सकती थी बीहड़ रास्तों पे अकेले
पा सकती थी अपना नाम
बना सकती थी अपना मकाम
मगर अफसोस
हर बार डर कर सहम जाती थी
उसी घर के कोने में
जहां कोई चीज़ उनकी नहीं थी

प्रकृति ने डाल दिये
हज़ारों संघर्ष उनके आँचल
और वो चुपचाप स्वीकारती रही हर तकलीफ
अपना भाग्य समझकर
मिले उन्हें नाम के कई रिश्ते
और उन रिश्तों से हज़ारों घाव
तन-बदन-मन सब लहूलुहान

इतनी पीड़ा इतनी कुंठा
कि कई बार वो खुद को भी
पहचानने से नकारती रही
बस जिंदगी का हिस्सा समझकर झेलती रही
वक्त की हर मार को जिस्म पर

उफ्फ ये जिस्म उसका
हर सहारे की कीमत
पुरुष के तृप्ति एक सामान
फिर भी चाहिए उन्हें सहारा
चलने के लिए बार-बार
क्योंकि मान लिया उन्होंने
वो कमजोर है
वो औरत है

रूची शाही