मजदूर कविता नहीं लिखता स्वयं कविता होता है: ज्योति रीता

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता

वह जब जमींदार का खेत जोतता है
बीज बोता है
पटवन कर खेत को पशुओं से बचाता है
पूस की रात में पहरा देने को
खेत के बगल में एक मचान बनाता है
जब फटे कंबलों में बीतती नहीं सर्द रात
तब बीड़ी सुलगाता है
और पूरी रात
घुटनों को छाती से चिपका कर गुजार देता है

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब वह ईट थापता है
सांचे में ढालता है
भट्टी में पकाता है
फिर ट्रकों में लाद
मालिक के घर गुलदस्ता सजाता है
फिर वही मजदूर
तुम्हारे घर की नींव रखता है
खड़ी करता है मजबूत दीवार
सीढ़ी-दर -सीढ़ी
तुम्हारे ख्वाबों का महल बनाता है
तरासता है तुम्हारे रोशनदानों को
ताकि तुम्हारे अंधेरे हृदय में
हल्की रोशनी बराबर आती रहे
फिर रंगाई – पुताई कर
गृह प्रवेश कराता है
और फिर
फुटपाथ पर खुद चैन से सो जाता है

मजबूरी से बना मजदूर
कवि स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब सड़कों के चौड़ीकरण के लिए
सड़कों से धूल हटाता है
तारकोल सा खौलकर
ईंट-पत्थरों संग सड़कों पर बिछ जाता है
फिर एक दिन होरी सा-
कुएं के पाठ पर गिरकर
खून की उल्टियां करता हुआ
मर जाता है

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब वह अखबार छापने की मशीन चलाता है
छाप देता है तमाम खबरें
किसी कोने में जापानी तेल का विज्ञापन भी
परंतु मशीन के चपेट में आने पर
खुद के मौत की खबर
नहीं छाप पाता
अखब़ार के आखिरी पन्ने
या किसी कोने में भी

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब जेठ की दुपहरी में
किसी पेड़ की छाया तले
खोलता है खाने की पोटली
सूखी रोटी के साथ नून
और रात के बचे कुछ आलू के फांक
हँसता-मुस्कुराता आनंद से खाता है
खैनी रटाता
बीड़ी सुलगाता
गमछे में नमकीन पानी पोंछता
उठ खड़ा होता है
पुनः निर्माण के लिए

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब रोटी के खातिर शहर जाता है
जब किसी फैक्ट्री में
जानवरों सा लगा दिया जाता है
जिसमें आने और जाने का
केवल एक रास्ता होता है
ताकि आपात स्थिति में कोई निकल ना पाए
निकले तो बस उनकी आधजली लाशें
मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब माॅल-पुल बनाते -बनाते
कहीं धराशायी हो जाता है

मजदूर नहीं जानता अर्थव्यवस्था या जीडीपी
वह नहीं जानता सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव
वह नहीं मनाता कोई दिवस
नहीं काटता कोई केक
नहीं बजाता कोई उनके पास जाकर ताली
नहीं टांगता उनके घर कोई बैलून
सुबह सवेरे कुदाल और कुल्हाड़ी लिए
घर से निकल जाता है
ताकि शाम तक भरा जा सके
पूरे घर का पेट

मजबूरी से बना मजदूर
कभी स्वयं नहीं लिखता कविता
वह स्वयं हो जाता है कविता
जब बरसात से पहले
जमा कर लेता है
एक-दो बोरी अनाज
सूखी लकड़ियां
एकाध किलो नून,

मार्क्स ने कहा-
दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ
तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है
सिवाय जंजीरों के
एक होकर भी नहीं बदली किस्मत
आज भी कीमत वही
सौ-दो सौ रुपया ही

ज्योति रीता

परिचय:
ज्योति रीता
(एमए, एमएड)
हिन्दी प्राध्यापिका
जन्मदिन- 24 जनवरी
ग्राम- रानीगंज (बंगाली टोला)
पोस्ट- मेरीगंज
जिला- अररिया, बिहार
पिन- 854334
Email- [email protected]

प्रकाशन:
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ई ब्लॉग, समाचार पत्रों आदि में रचनाएं प्रकाशित।