वासंती दोहे: गौरीशंकर वैश्य

खिले लाल-पीले सुमन, कर श्रंगार नवीन
रंगबिरंगे बिछ गये, ज्यों सुंदर कालीन

दृष्टि जिधर भी डालिए, क्यारी कहे पुकार
प्रिय वसंत के कंठ में, मैं डालूँगी हार

कोकिल के सँग काग भी, गाये राग वसंत
चेले भी ऋतुराज के, बने फिर रहे संत

ठंड सिमटती जा रही, हुई गुनगुनी धूप
वासंती छायी छटा, खिला प्रकृति का रूप

गंध नहीं, पर रंग है, हँसते युवा पलाश
मिला प्रकृति से बहुत कुछ, होते नहीं हताश

रंगबिरंगी तितलियाँ, करें पुष्प रस पान
प्रेम भाव का दिख रहा, शुभ आदान-प्रदान

शुभागमन ऋतुराज का, करता प्रेम विभोर
सजे पेड़-पौधे खड़े, जैसे युवा-किशोर

‘सोशल साइट’ पर नहीं, मिल सकता मधुमास
खेत-बाग तक जाइये, होगा मृदु आभास

महुआ को कुछ देर से, मिला स्नेह संदेश
आयेंगे ऋतुराज अब, मेरे हृदय प्रदेश

नई पत्तियाँ सीखतीं, भाषा-भाव नवीन
हवा सुनाती प्रेम से, कविता समकालीन

गमले भी बेडरूम के, लगे बदलने रंग
कलियों पर छाने लगा, चंचल चपल अनंग

आम्रमंजरी, पिक, भ्रमर, प्रिय सरसों के फूल
ऋतु वसंत का आगमन, कभी न पाते भूल

नव कलियाँ इठला रहीं, ऋतु वसंत के बीच
मंद मंद मादक पवन, रहा सुगंध उलीच

मुठ्ठी खोली धरा ने, खिली गगन मुस्कान
सुन आगमन वसंत का, पक्षी गाते गान

रूखे हृदयों में जगे, प्रेम भाव की आग
राष्ट्रवाद के रंग से, मिलजुल खेलें फाग

माँ सरस्वती दीजिए, शब्द, बुद्धि, स्वर, नाद
जड़-चेतन में व्याप्त हो, शिव-सुंदर आह्लाद

कोकिल की मृदु कूक से, उठी हृदय में हूक
कहता है ऋतुराज प्रिय, हो न दुबारा चूक

रहे नौकरी ढूँढ़ते, बीते तीस वसंत
कौन मिले अब संगिनी, मुझे बनाये कंत

रस, उत्सव स्वर, छंद में, बसता है मधुमास
कभी न पा सकते उसे, रोते हुए उदास

नव वसंत ने कर दिया, पेड़ों का श्रंगार
पिकी, भ्रमर, तितली मुदित, करते जय जयकार

माँ वाणी सुरभित करो, काव्य, कला, संगीत
बजे प्रकृति की बाँसुरी, भू-नभ गायें गीत

गेहूँ की बाली कहे, री! सरसों तू धन्य
देख तुम्हारी पीतिमा, प्रियतम मिले अनन्य

गौरीशंकर वैश्य विनम्र 
117 आदिलनगर, विकासनगर,
लखनऊ-226022 
दूरभाष- 09956087585
ईमेल- [email protected]