इन्हीं पंखों की हवाओं से- मनोज शाह

बेशुमार गर्मी गुजार रहा हूँ,
इन्हीं पंखों की हवाओं से

एसी है न कूलर, काट रहा हूँ,
इन्हीं पंखों की हवाओं से

कमरे के एक कोने में,
मण्डप में पड़ी फुल मालाएँ,
मुरझाई अर्ध मुरझाई
रह जाती है यह सोचकर
हमें रोज बदलना है
इन्हीं पंखों की हवाओं से

खूँटी पर टंगे हुये
मैले, अध मैले कपड़े
हल्की हल्की डोलकर रह जाते हैं,
यह सोच कर कि
हमें तो हप्तों में धुलना है
इन्हीं पंखों की हवाओं से

एक कील पर टंगा
रंग बिरंगा कैलेंडर
फड़फड़ाकर रह जाता है
यह सोच कर कि
हमें तो महीनों तक चलना है,
और वर्षों में बदलना है
इन्हीं पंखों की हवाओं से

फटे अध फटे,
दरवाजे खिड़की पर,
टंगे हुये पर्दे,
सुस्त सुस्त मचलकर रह जाते हैं
यह सोच कर कि
हमें तो वर्षों चलना है
इन्हीं पंखों की हवाओं से

टूटी अध टूटी
एक कोने में पड़ी घड़ी,
टक्.. टक्.. टिक्.. टिक्
अपनी ही गति में अपनी ही चाल में,
कोई असर नहीं कोई फरक नहीं
इन्हीं पंखों की हवाओं से

मदहोश बेहोश नींदों में,
अर्ध नग्न वस्त्र सुन्दर बदन से,
वस्त्र को सरकाने की,
कोशिश कोमल कर से
करवट बदलती हुई नींदों में,
बरबराती है
मुआ
बार बार सरक जाता है वस्त्र
इन्हीं पंखों की हवाओं से

-मनोज शाह मानस
नई दिल्ली