माँ कब आएँगे अपने दिन: अनिल मिश्र प्रहरी

सदियों तक हम पराधीन थे
अपना तंत्र न चलता,
काली-काली रात, मौत के
साये में दिन ढलता
जीने का आधार गया छिन
माँ कब आएँगे अपने दिन?

रुधिर, प्राण दे मुक्त हुए थे
थी जन की अभिलाषा,
मुक्ति मिलेगी क्षुधा-ज्वार से
देश न होगा प्यासा
स्वप्न अभी साकार न लेकिन
माँ कब आएँगे अपने दिन?

रुग्ण जनों को दवा मिलेगी
सर पर छत की छाया,
निर्धनता से मुक्ति मिलेगी
सुन्दर, सुखकर काया
सोते कुछ अब भी खाये बिन
माँ कब आएँगे अपने दिन।

अब भी बच्चे हाथों में
ले फिरते भग्न कटोरे,
दो-दाने की आस लगाये
पत्तल क्षुधित बटोरे
रामराज्य कब होगा मुमकिन?
माँ कब आएँगे अपने दिन?

निर्बलता, लाचारी अब भी
घर में पैर पसारे
व्याधि और पीड़ा मिल दोनों
निर्धन को नित मारे।
दिन जीवन के रहा काल गिन
माँ कब आएँगे अपने दिन?

संवृद्धि की चकाचौंध से
सूने अगणित द्वार,
रुज, बीमारी में फँस जीवन
अक्सर जाता हार
जरा रेंगती है औषधि बिन
माँ कब आएँगे अपने दिन?

मिट्टी का यह गेह कि जिसका
छप्पर निशि-दिन चूता,
बुढ़िया जगके रैन बिताये
कब तक जगे प्रसूता?
थर्र-थर्र काँपे बेटी कमसिन
माँ कब आएँगे अपने दिन?

अनिल मिश्र प्रहरी
लुधियाना, पंजाब