मटकी- विनय जैन कँचन

वैसे थी तो वह छोटी, मगर चंद दिनों में ही घर में सबकी प्रिय हो गई थी। होती भी क्यों नहीं इस भीषण गर्मी में भी चंद पलों में अपने भीतर सहेजे जल को एकदम शीतल अमृत सा बना देती और अपने अमृत से एकपल में सुधा शान्त कर मन तृप्त जो कर देती, जी हाँ वो मिट्टी की छोटी सी मटकी ही तो थी। कुछ रिश्ते भी तो ऐसे ही होते हैं।
खैर,
कल जब सायंकालीन भोजन कर रहा था, तो पत्नी मटकी के साथ गिलास भी उठा कर मेरे पास ला रही थी, अनायास गिलास फिसलने लगा और गिलास सम्भालने के चक्कर में पत्नी का मटकी से ध्यान हटा और मटकी हाथों से छुटकर धड़ाम!
बस फिर क्या था पत्नी जी का अफसोस चालू, अब इतना शीतल जल कहाँ से मिल पाऐगा?
इधर चिंतन तो मेरे भीतर भी चल रहा था कि मैंने भी तो अपने अहम को बचाने के चक्कर मे इसी तरह तो कई बार रिश्तो को, आपसी सम्बन्धों को फिसला दिया है! धड़ाम!
फिर कभी ना जुड़ने के लिए।
और बचा कर रख लिया था अपने अहम को।
मैं तेजी से उठ कर निकल गया घर से बाहर कुछ टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने।
किसी युक्ति से जुड़ाव तो कर लूँगा मगर क्या वो शीतलता फिर से ला पाँऊगा?

विनय जैन ‘कँचन’