पिता- सुजाता प्रसाद

उपस्थिति में पिता के,
अरमानों के दीए
जगमग-जगमग,
जलते ही रहते हैं,
जीवन पथ के अनगिन,
गड्ढे, उथले, गहरे,
आशीषी अमृत जल से,
हर-पल हर- क्षण
कल-कल, निश्चल
भरते ही रहते हैं
नमन उनकी
परवरिश को
परवाह कभी कहाँ
वे अपनी करते हैं,
संतानें उनकी ही
प्रतिध्वनि तरंगें,
फ़िक्र उनकी हर पल की
बेपरवाही में बच्चे रहते हैं

अपने सपनों को
वक्त के बक्से में
सहेज कर बंद
करते रहते हैं
बच्चों की खातिर पर
अलादीन के चिराग़ सा
आंखों की अलमारी में
सजते रहते हैं

हम बच्चे बस बोते हैं
अपने-अपने सपने
रहती कहाँ फ़िक्र हमें
कैसे हो अंकुरण, फिर
सिंचन और बढ़ोतरी,
बगिया के माली बन
करते हैं इन सबकी
परवाह पिता ही
रंग औ’ बू भी भरते रहते हैं

हमारे सपने तो होते हैं
कच्चे माल की तरह
सलोने सुहाने अधकच्चे
कुछ झूठे, कुछ सच्चे,
सपनों की नींव से लेकर
हर दीवार और छत तक
हौसलों के ईंट-गारों के
संयोजन से निर्मिति तक
सहायक पिता नि:संदेह
इमारत के अभियंता होते हैं

-सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली