दहक उठे टेसू-गुलमोहर: स्नेहलता नीर

फागुन लेकर आया घर-घर, रंगीली होली।
द्वारचार करती आँगन में, पावन रंगोली।।

सरसों पीली ओढ़ चूनरी, खिल-खिल मुस्काती।
चना-मटर से नैन लड़ाकर, अलसी हर्षाती।
गेंहूँ-जौ पर चढ़ी जवानी, महुआ बौराया।
रंगरसिक भ्रमरों के मन में, प्रेम-नशा छाया।
घोल रही कानों में मिसरी, कोयल की बोली।।

दहक उठे टेसू-गुलमोहर, महकी अमराई।
घोल रही साँसों में मधुरस, सुरभित पुरवाई।
देख प्रफुल्लित अमलतास को, सेमल भी बहके।
भिनसारे से सोन चिरैया, आँगन में चहके।
फाग खेलती हुरियारों की, हुरदंगी टोली।।

फगुनाहट से गली-गली में, नैन मटक्का है।
चढ़ा प्रेम का रंग दिलों में, लगता पक्का है।
बाजें चंग-मृदंग झाँझरें, अंग-अंग झूमे।
चंचल दृष्टि चकोरी बनकर, रुचिर-सृष्टि चूमे।
छलक रही है हँसी-खुशी से, प्रियता की झोली।।

स्नेहलता नीर