नादान परिंदा: स्नेहलता नीर

बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।
घर-घर में तनाज़ा, हर सम्त गदर था।

नफ़रत के ज़ह्र का, दिल में था समंदर।
मन में ग़ुबार था, गर्दन पे था खंजर।
लाशें बिछीं मिली, डर शामो-सहर था।
बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।

नादान परिंदा, निकला उड़ान को।
छूने के वास्ते, वो आसमान को।
आया जो लौटकर, काफ़ूर शज़र था।
बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।

मंज़िल की राह में काँटे हजार थे।
हासिल हमें मगर,करने मेयार थे।
मुश्किल तमाम थीं, जारी भी सफ़र था।
बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।

आँखों में ख़्वाब के, लाखों गुलाब थे।
वो ज़ख्म जो मिले, लगते अज़ाब थे
नज़रों में मंज़िलें, सपनों का नगर था।
बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।

मक़सद तो नेक था, पर इम्तिहान था।
सब साथ चल दिये, जज़्बा जवान था।
मंज़र बदल दिया, हर सम्त असर था।
बेज़ान शह्र में, पत्थर का बशर था।

स्नेहलता नीर