आईना और अन्य कविताएं: जसवीर त्यागी

खुद को पाना

जब कभी
तुम्हें याद करता हूँ

तुम्हारे होने में
खुद को देखता हूँ
एक नये सफल सार्थक रूप में

जैसे कोई पत्थर
खुद को निहारता है
नये रूप में
प्रतिमा में तब्दील हो जाने के बाद।

अकेला

जब अकेला होता हूँ
और कोई नहीं होता
मेरे साथ

तब भी मैं
अकेला कहाँ होता हूँ?

देखने वाले मुझे
अकेला देखते हैं

मैं अकेला देखता हूँ
खुद को
स्मृतियों के शिशुओं से घिरा हुआ।

आईना

तुम आईना हो
जिसमें खुद को
निहारता हूँ

सजता हूँ
सँवरता हूँ
इतराता हूँ
खुद को देख-देख आइने में।

समझना

उसने कहा-
आप हमें समझते हैं

अच्छा लगा
मुझे यह जानकर

वह समझती है
कि मैं उसे समझता हूँ

असल में
समझना रिश्तों की
एक पुस्तक है

जिसे पढ़ने के बाद

हम कुछ नया सीखते हैं
कुछ नया समझते हैं

जसवीर त्यागी