अपनी-अपनी दुनिया: वंदना पराशर

वंदना पराशर

आजकल सोचता हूं
घर के बारे में

उस घर के बारे में
जहां लोग साथ-साथ रहते हैं
सबके अपने-अपने कमरे हैं
अपनी-अपनी दुनिया है
एक मकान के अंदर
कई दुनिया बसती है
एक-दूसरे से बेख़बर
ये लोग
जीते है ज़िंदगी

दूर खड़ा मैं
सोचता हूं
उस घर के बारे में
जो बना होता है
अपनों के अपनेपन से
उस घर के बारे में
जहां लोग एक-दूसरे के दुःख-दर्द को
बिना कहे ही महसूस कर लेते है
उस घर के बारे में
जहां दुनिया को भूलकर लोग घंटों बतियाते हैं अपनी ठेठ बोली में
घुलती जाती है
शहद की मिठास
पूरे माहौल में
(या फिर- पूरे वातावरण में)
दूर खड़ा मैं
सोचता हूं
घर के बारे में