बारिशों का क़तरा-क़तरा: प्रार्थना राय

प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश

निरर्थक पड़े शब्दों के
झरोखों ताकती हूं
तो केवल और केवल दिखाई देती है
अज्ञात पीड़ा की चादर में सिमटी हुई
एक अनमनी सी कहानी

जिसको संवारने में शायद
निचोड़ना पड़े जीवन भर का व्याकरण
जीवन की रीतियों के आकाश मंडल पर
जब घिरते हैं संबंधों के क्षुब्ध बादल
तो कहीं ना कहीं सहम जातें हैं
कोमल मन वाले आदम

हृदय की तरलता पर प्रेम की वो पटरी
जिसपे कभी दौड़ती थी हँसती-खेलती रेलगाड़ी
आज अलग-अलग दो राहों पर
कराह रहीं है मौलिक मुस्कान वाली ज़िन्दगी

मन में लिखी एक कविता
जो सदैव परिभाषित करती थी श्रृंगार को
परन्तु आज समय की थाप पर थिरकती हुए
मर्म गीत माप रहा है पांव की चाल को

तन की चर्मिका पर सूखी वनस्पति के भाँति
ख्वाईशों की झुर्रियां प्रश्नों की ओट पर
नवीन सम्बोधन के संदर्भ में
बार-बार मांग कर रही है सही प्रश्न का उत्तर

असमर्थ हो गयीं हैं समस्त इन्द्रियाँ
सही दिशा का मार्ग प्रशस्त करने में
आप, तुम और हम के तिराहों के मध्य मैं
ढूँढ रही हूं अभिलाषाओं की खोई वो गलियां
जिस पे चस्पा रहते थे कभी अपनत्व के पोस्टर

कुछ आधे-अधूरे वाक्य
अधरों को छूकर
मनोवृतियों के नम भीत पर
विवेचना कर रहा है पावसी सुधियों की
बारिशों का क़तरा-क़तरा