क्यूँ कि एक स्त्री है वो: प्रार्थना राय

धूमिल हो रही थी हाथ की रेखाएँ
तप रही थी संघर्षों की धूप में
फिर भी भविष्य का बीजाकरण
कर रही थी वो, मरूस्थलों के गर्भ में

बज रहे थे उलाहनाओं के डंके
लिए जा रहे थे चरित्र के लेखे-जोखे
फिर भी अडिग हो, लिख रही थी वो
पवित्रता के प्रतीक के किस्से

महासागरों के पुल से
नीले अंबर के छोर तक
तुरपन करती रहती है सदैव वो
अन्तर्सम्बन्ध की कुँवारी चुन्नी पर लगी खरोंचों को

चोटिल अवस्था में रहकर भी
कायम रखती है, अपनी सीरत को
बचाये रखना जानती है वो
सुगंधित संबंधों की यादों को

पारखी निगाहों की स्वामिनी है वो
सर्वव्यापी चट्टानी इरादे हैं उसके फिर भी
स्वयं को निरर्थक मानकर
निषेध की काली पट्टी आँखों पर बाँध लेती है वो

मरोड़ी हुई कलाई पर
खनखनाती हुई इच्छाओं की शिनाख्त
करना बरबस ही सरल नहीं होता
फिर भी अपनी पहचान को कायम कर लेती है वो

अपने ही शरीर का
अनगिनत संबंधों में बँटवारा कर लेती है वो
अपने जीवन की उपलब्धियों का पंचनामा
आँखों से टपकते आंसुओं के ढेर पर टाइप करती है वो

शून्यता की भीत पर
जीवन भर प्रायश्चित के दंश का
सजीव चित्रण करती रहती है वो
क्यूँ कि एक स्त्री है वो

प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश