प्रेम प्रकृति: रामजी त्रिपाठी

जब प्रेम प्रसंग कही पर होता है
मन में तस्वीर तुम्हारी आती है
हिलोरे लेने वाले भावों की गंगा बह जाती है
पवित्र बंधन हम लोगों का
समझ कुछ न आता है
दूर हो फिर भी दूर न रहा जाता है

धरती अम्बर ये प्रश्न सभी से पूछ रहे
कहने को तो है अलग थलग
फिर भी प्रेम मगन में डूब रहे
अश्रु बहते, प्रेम ह्रदय से
कंपन जी जुबान होती है
वो देखो फिर भी
दो जिस्म एक जान होती है

है फूल खिला जो वो मधुवन से पूछ रहा
ये प्रेम सुगंध दूर रह कर भी
कैसे फल फूल रहा
न पिपासा मिलने की, न है दूर रहने की
जैसे कोई बिन सीप में मोती ढूंढ रहा

जब जब आग तपन सूर्य में होती है
तड़प प्रेम की तपन प्रेम हृदय में होती है
शीतलता है चांद की मन पर ऐसी छाई
तारों के बीच जैसे आकाश गंगा नजर आई

चलो छोड़ो ‘रामजी’ क्या क्या बखान करे
नेक हृदय में एक हृदय ही वास करे
हमारा क्या है हम तो बस प्रेम देखते हैं
वो हृदय ही क्या जो हृदय बिछड़ कर रहते हैं

रामजी त्रिपाठी