सपने: जॉनी अहमद ‘क़ैस’

अधूरे सपने बोझ बनकर मेरे काँधों पर बैठे हैं
ये वो सपने हैं जो मंज़िल तक न पहुँच सके
या यूँ कहूँ कि मैं उन्हें पूरा न कर सका
एक सूखे बादल की तरह मैं इन्हें दे पाया
तो महज़ एक झूठी बरसात की उम्मीद
छोटे बच्चे को जिस तरह से बहलाया जाता है
मैं भी इन्हें उसी तरह बहलाता फुसलाता हूँ
हर रोज़ इनसे एक नया चुनावी वादा करता हूँ
और बार की तरह भूल जाता हूँ
में इन्हें एक बाप की तरह भी समझाता हूँ
बताता हूँ कि हक़ीक़त पत्थरों की बारिश है
और तुम सब एक महीन काँच की छतरी
पर कहाँ मानते हैं ये ज़िद्दी बदमाश
ये ज़ोर ज़ोर से मेरे ज़ेहन में चीख़ते रहते हैं
ये मज़दूर यूनियन की तरह चिल्लाते हैं
‘हमारी माँगें पूरी करो, हमारी माँगें पूरी करो
इंकलाब ज़िंदाबाद, इंकलाब ज़िंदाबाद।’
पर सच कहूँ तो कभी कभी डर लगता है
डर लगता है की कहीं एक रोज़
ज़रूरतों के वज़न तले दबकर ये मासूम
बिना अपनी मंज़िल तक पहुँचे ही
ये सपनें किसी कर्ज़दार किसान की तरह
ख़ुदकुशी न कर ले

जॉनी अहमद ‘क़ैस’