सुकून का कोई कोना: रूची शाही

रूची शाही

स्त्रियां ढूंढती है घर
जिसे वो न केवल अपना कह सकें,
बल्कि समझ भी सकें और महसूस सकें

ऐसा नही की वो बेघर होती हैं
उनका कोई आसरा नहीं होता
बस उनके सर पे सुख की छत नहीं होती
चार दीवारों का मकान तो होता है
पर सुकून का कोई कोना नहीं होता

वो सजा तो लेती हैं सारी अराइशों से घर को
फिर भी उनको हर चीज़ परायी सी लगती है
उन्हें घर तो मिल भी जाता है
पर उस घर में उनको उनका अस्तित्व नहीं मिलता
उस घर में हर समान तो मिल जाता है
पर उनको अपना स्वाभिमान नहीं मिलता

मिले भी तो कैसे
वो तो बरसों पहले ही कुचला जा चुका था
दूसरों के अहं की दीवार के नीचे
टूट चुका होता है
उनके मान सम्मान का दर्पण

इस तरह स्त्रियां ढूंढती रहती हैं जीवन भर
एक ऐसा घर जहां हो उनका अस्तित्व
जहाँ हो उनका मान-सम्मान
पर उन्हें मिलता कुछ भी नहीं

रूची शाही