तुम ख़ास हो: वंदना सहाय

वंदना सहाय
नागपुर

कई बार देखा है तुम्हें सब्जी-मंडी में
जब तुम खरीद रहीं होती हो सब्जियाँ
पाव-भर से लेकर कुछ किलो तक

सब्ज़ियों को रख आँखों के सामने
तुम उन्हें वैसे ही परखती हो-
जैसे परखता है जौहरी शीशे से हीरों को

पहले जब मैंने तुम्हें देखा था
तुम थीं- एक कोमल लता

आज वर्षों बाद देखा तुम्हें
एक कठोर तने के रूप में

तुम्हारी सीमित शक्ति से भी
ऐसे बहुत कार्य हुए
जो थे असंभव

भले नहीं मिले तुम्हें कोई कप या मेडल
पर तुमने किये कई बड़े-बड़े काम
जिसका कभी किसी को नहीं हुआ अहसास
और तुमने भी तो किसी को इसका अहसास नहीं कराया

कई बार तुम्हारा कोई नाम नहीं होता
तुम बेनाम और गुमनाम होकर भी
‘घर’ की आत्मा रचती हो
तुम बहुत खास हो
पर आम लगती हो

और…
किसने दी तुम्हें दुआएँ
दीर्घायु होने की
फिर भी, हर रोज़ दिन निकलते ही
हाथ उठा माँगती हो दुआएँ
अपने परिवार के सलामती की