सब दिशाएँ मौन हैं- मुकेश चौरसिया

मनुष्य ने छीना,
नदी से उसका पानी,
पानी से उसकी निर्मलता।
जानवरों से उसका जंगल,
जंगल से उसकी सुषमा।
धरती से उसके पहाड़,
पहाड़ से उसकी ऊँचाई।
आकाश से उसके पंछी,
पंछियों से उसके पंख।
मछलियों से उनका सागर
सागर से उसकी गहराई।
उपवनों  से उसके पुष्प।
पुष्पों से उनका सौरभ।
तितलियों से उसके पंख।
पंछियों से उनका कलरव।
इंद्रधनुष से उनके रंग।
इतना सब छीनकर भी,
है मनुष्य एकदम
अतृप्त!
निर्धन!
तेजहीन!
शक्तिहीन!
अकिंचन!
गूँज रहे उसके कातर स्वर,
दिक् दिगंतर,
कहाँ है मेरे मन की शाँति?
कहाँ है मेरे मन की शाँति?
सब दिशाएँ मौन हैं!
मनुष्य से भी छीनने वाला कौन है?

-मुकेश चौरसिया
गणेश कॉलोनी,
केवलारी, सिवनी