कंपकंपाता मजदूर- पूजा पनेसर

कंपकंपाता मजदूर जब चला,
इस जहां से कुछ न मिला
जब तक वह कुछ समझ पाता,
आपदा में ईश्वर काम नहीं आता,
चाहता था वह जिसका साथ ,
सभी निकले भ्रष्टाचार

वह करता अपनी संवेदना पर विचार ,
सुबह मिली बिखरी रोटियाँ लाचार
समझ न पाया वह यह कहानी ,
कहाँ से निकली यह माहवारी
मिल कर करते हो जो मीटिंग,
इसे कहते हो सोशियल डिस्टेंस?

कुपोषण, शोषण सरकारी तंत्र पर दिया जोर,
देश चलाने वाले निकले चोर
आशियानों में बैठे हो रहे है जो बोर ,
देखो बाहर ग़रीबवासियों की ओर

कुछ मर गए, कुछ मारे गए,
कुछ बेबसी के मारे गए
चलते चलते थक गए,
पाँव भी जिनके पक गए
स्थितियों ने उसे ऐसा नोचा,
अब तक वह घर न पहुँचा
जीवनशैली में हुआ व्यंग्य,
चलते चलते हो गया तंग

जब तक सोचा उठने को,
बीमारी ने निगला कितनो को
नया साल का तोहफा था,
होगा ऐसा न सोचा था
उपजी समस्या का न मिला हाल,
थक गया अब चल-चल
न खाने को, न रहने को
बस रह गया खाली हाथ मलने को

यह इतिहास कम ज़हर ज़्यादा कहलाएगा
आने वाले समय में यह सबको बतलाएगा
दिन से रात, रात से दिन,
लाशें रह गई पटरियों पे चिह्न
मीडिया चैनलों को मिला रोज़गार,
रोते बच्चो से पूछते चले हाल
मिली न उनको कोई सहायता,
क्या इतना है शरीर उनका सस्ता?

चल रहे हो कब से तुम ,
हो कर यू गुमसुम
बच्चे लाओ कैमरे के पास,
समाचार बनाए कुछ खास
रोते रोते बच्चो को उठाए जा रही है,
वो माँ है जो मुस्कुराए जा रही है
मौत बुरी है या ज़िन्दगी,
कब खत्म होगी यह बंदगी

-पूजा पनेसर
लुधियाना, पंजाब, भारत