ठंडी राख- अनिल मिश्र

मत निकालो मीन तुम और मत निकालो मेख
ज़िंदगी कविता रही है क्यों लिखूँ मैं लेख
भावना प्रतिपल जली है प्रेम को भी बाँटकर
नेह में लिपटी हुई बत्ती जली है प्रेम से।

दिल को तुमने छू लिया जब मत उकेरो दर्द को
मौन होकर सब सुनो है प्रलय इसमें अभी
ज्वार हैं, भाटे भी हैं, कुछ दर्द के कुछ प्यार के
कुछ दर्द के श्रृंगार के, कुछ मौत से भी प्यार के।

इस हृदय के दर्द का अनुमान क्या होगा किसी को
स्वार्थ के दलदल हलाहल कोप के प्रतिपल सृजन को
द्वेष, ईर्ष्या, बैर के बेबाक विश्लेषण हृदय के
राख ठंडी तृप्त होकर आग को दिल मे संजोए।

-अनिल कुमार मिश्र
हज़ारीबाग़, झारखंड