ये जो तेरा शहर है- सौरव मुंडा

कुकुरमुत्ते से पनपे,
ऊंचे नीचे इमारत,
और छोटे बड़े मकानों वाला,
ये जो तेरा शहर है।

मैं जब भी आता,
पहाड़ियों के रास्ते आता।
कुछ घुमावदार मोड़,
और सीधी सड़कों से होता,
कब तंग गलियों में पहुंच जाता,
ख़बर ही नहीं होता।

अपनी बगलें झांकता,
कभी ऊपर,
तो कभी नीचे भी।
नज़रे टिक जाती,
कभी किसी शीशमहल पर,
तो कभी,
आसमान चूमते डिब्बेबंद घरों पर।

रात और भी खूबसूरत लगती,
झिलमिलाता शहर,
जैसे आसमान में टिमटिमाते तारे।
न कोई शोर,
न कोई लोग।
ठंडी ठंडी पुरवाई के बीच,
सड़कों पर होना भी,
कितना शुकुन भरा होता था।

इस अजनबी शहर के,
किसी कोने में,
एक सौंधी सी खुश्बू ,
अपनेपन की,
थी तैरती हवा में।
उस खुश्बू के पीछे,
किसी लंबे ट्रैफिक जाम की तरह,
हौले हौले आगे बढ़ता मैं,
ठहर सा जा रहा था।

अचानक हुई बारिश से,
भीगता है शहर,
और थोड़ा सा भीगता हूँ मैं।
ठहरकर आंखे बंद करता हूं,
तो लगता है,
कोई लोरी है गा रहा मेरे लिए।

उस चौराहे से कभी आगे बढ़ता हुआ,
उन गलियों से भी गुजरा,
जहां से वह खुश्बू आती थी।
न जाने वह खुश्बू,
कहाँ गुम थी।
शहर में अब तो तेरे,
होना भी,
न होने के जैसा था।

कुकुरमुत्ते से पनपे,
ऊंचे नीचे इमारत,
और छोटे बड़े मकानों वाला,
ये जो तेरा शहर है,
अब पीछे छूट रहा।

अब पीछे छूट रहा,
ये जो तेरा शहर है,
जहाँ मैं इश्क़ खरीदने जाया करता था।

-सौरव मुंडा