ज़िंदगी में- रामजी त्रिपाठी

इतने सजा लिए हैं व्यवधान ज़िंदगी में
दबे हुए से जी रहे जिंदगी, ज़िंदगी में

सिंदूर की चमक हो, पुत्र की धमक हो
कहने को सब हैं अपने मेहमान ज़िंदगी में

रोटी, मकान, कपड़े, कापी, किताब, गहने
बहलाव के हैं सारे सामान ज़िंदगी में

आँखों से झर रही है अश्क़ों के फूल बनकर
होठों पे जो कभी थी मुस्कान ज़िंदगी में

घुट- घुट के रोज़ मरना, मर-मर के रोज़ जीना
इतना ही बस जीना है, बेजान ज़िंदगी में

-रामजी त्रिपाठी