हमारे हनुमान जी विवेचना भाग-एक: हनुमान चालीसा के दोहों की सूक्ष्म विवेचना

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार।
वरनउ रघुबर बिमल यश जो दायक फल चार।।

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार।।

अर्थ- श्री गुरु के चरण कमल की पराग रूपी धूल से अपने मन रूपी दर्पण को निर्मल करके रघुवर की विमल यश गाथा का वृतांत कह रहा हूं जो चारों प्रकार के फल देने वाला है। मैं बुद्धिहीन, हनुमान जी का सुमिरन कर रहा हूं। हनुमान जी से प्रार्थना कि वे मुझे बल बुद्धि एवं विद्या प्रदान कर मेरे सारे क्लेश एवं विकारों का हरण कर लें।

भावार्थ- मेरा मन एक गंदे दर्पण की तरह है। इसके ऊपर माया मोह, मत्सर, लोभ,   विषय वासना आदि की मैल लगी हुई है। यह साधारण साबुन और पानी से साफ होने वाली नहीं है। इसको साफ करने के लिए मैंने अपने गुरुदेव के चरण कमलों के पराग रूपी धूल को लिया है और उससे मैंने अब अपने मन को साफ कर लिया है। अपने मन को साफ करने के उपरांत अब मैं भगवान शंकर और गुरुदेव की कृपा से रघुवर के सुयश का वर्णन करूंगा जो चारों प्रकार के फल अर्थ धर्म काम मोक्ष को देने वाली है।

संदेश- यह दोहा यही संदेश देता है कि जब आप हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठें तो पहले अपने  गुरुदेव को स्मरण कर मन को पूरी तरह से पवित्र कर लें। अपने ईश्वर को याद करें और मन को साफ रखें। भगवान श्री राम की महिमा का वर्णन करने पर आपको शुभ फल प्राप्त होगा, इसलिए खुद को राम भक्त हनुमान जी को समर्पित करते हुए उनकी कृपा से बल, बुद्धि और विद्या पाएं और अपने जीवन के हर कष्ट से मुक्ति पा लें।

दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ

प्रथम दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार। 

वरनउ रघुबर बिमल यश जो दायक फल चार।।

हनुमान चालीसा के इस दोहे के पाठ से गुरुकृपा प्राप्त होती है।

द्वितीय दोहा

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरो पवन कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार।।

हनुमान चालीसा के इस दोहे के बार-बार पाठ से बुद्धि और विद्या प्राप्त होती है।

विवेचना

इस दोहे की सबसे पहली पंक्ति में महाकवि तुलसीदास जी ने सबसे पहले अपने गुरुवर की वंदना की है। तुलसीदास जी की इस कृति के अतिरिक्त उनकी किसी भी अन्य कृति के आरंभ में गुरु वंदना का उल्लेख नहीं मिलता है। उदाहरण स्वरूप रामचरितमानस के प्रारंभ में कवि ने सबसे पहले वाणी की देवी सरस्वती और गणेश जी की वंदना की है। उसके उपरांत शिव और पार्वती की वंदना की है। कवितावली दोहावली आदि अन्य ग्रंथों में भी सबसे पहले गुरु की वंदना नहीं है। प्रायः अन्य कवियों ने भी अपने ग्रंथों में सर्वप्रथम गणेश जी की वंदना की है। गुरु की सबसे पहले वंदना यह भी दर्शाती है कि हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनके गुरु का था। यह छात्र जीवन में ही  संभव है। प्रथम पंक्ति से ही हम हनुमान चालीसा लिखने के समय के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी जी ने यह रचना अपने छात्र जीवन अर्थात किशोरावस्था में की थी।

तुलसीदास जी लिखते हैं रघुवर के विमल यश के गायन से हमें चार फलों की प्राप्ति होगी। यह चार फल कौन से हैं उन्होंने यह नहीं बताया है। ऐसा मानना है कि सृष्टि के निर्माण में संख्या चार का बहुत योगदान है। आप ध्यान दें भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं, ब्रह्मा जी भी चतुर्भुज है। उनके चार मुख हैं जिससे चार वेदों की उत्पत्ति हुई है। विश्व के सभी प्राणियों को 4 वर्ग अंडज, जरायुज, स्वेदज एवं उद्भिज्ज में बांटा गया है। प्राणियों की जीवन की चार अवस्थाएं हैं, जिन्हें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय कहा जाता है। काल अर्थात समय को भी चार भागों में बांटा गया है, सतयुग, त्रेता, युग द्वापर युग और कलियुग। हमारे चार धाम है बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका धाम और जगन्नाथ। उत्तराखंड में भी चार ही धाम कहे जाते हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। कहां जाता है कि भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप धारण कर भक्तों को चार तत्व धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे सनातन धर्म में चार  का बड़ा महत्व है।

गुरुवाणी में भी इसी प्रकार का लिखा हुआ-

चारि पदारथ लै जगि जनमिया सिव सकती घरि वासु धरे। (गुरूवाणी-1/1013)

जिस समय एक बच्चा माता के उदर में आता है तो उसे चार पदार्थों का ज्ञान होता है, किन्तु जन्म के पश्चात् वह ज्ञान भूल जाता है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से उसे पुनः ज्ञान की प्राप्ति होती है।

चार पदार्थों का वर्णन हमें कई स्थानों पर मिलता है परंतु वे चार पदार्थ कौन-से हैं, इससे हम अनभिज्ञ हैं। चार पदार्थों के बारे में कहा गया है कि संसार में जब जन्म लिया तो चारों पदार्थों को साथ लेकर आए तो विचार करना है कि क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को साथ लाए हैं? वे कौन से चार पदार्थ हैं जिन्हें लेकर संसार में जन्म लिया है और यदि धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष को ही हम चार पदार्थ मान लें तो इसका भाव है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे साथ ही आए हैं। लेकिन फिर इनकी प्राप्ति के लिए क्यों कहा है कि-

सतिगुरु कै वसि चारि पदारथ। तीनि समाए एक क्रितारथ। (गुरूवाणी-1/1345).

चारों पदार्थ सतगुरु के वश में हैं। जब यदि हम चारों पदार्थ साथ लेकर आए हैं तो वे सतगुरु के पास कैसे हैं?

यही जानना है कि वे चारों पदार्थ वास्तव में कौन से हैं जिन्हें मीरा ने कहा-

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलु कैसे जाय।

गलियाँ तो चारों ही बंद पड़ी हैं, मैं प्रभु से कैसे मिलूँ?

वास्तव में, ये तो- अभिव्यक्तिकराणि योगे- पूर्ण योग (ब्रह्मज्ञान) के सूचक और लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि वहाँ प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को ‘चतुष्पदी भागवत’ का ज्ञान प्रदान किया। बौद्ध धर्म में महात्मा गौतम बुद्ध ने जिन्हें ‘चार आर्य सत्य’ कहा है एवं महावीर ने जिन्हें ‘चार घाट’ कहा है, इस प्रकार ये कौन-सी चार उपलब्धियाँ हैं जिनकी चर्चा संत, महापुरुषों, ऋषि, गुरु, अवतारों ने अपनी वाणी में की है। सभी धार्मिक ग्रंथ भी चार पदार्थों की महिमा गाते है। इन मुक्ति प्रदान करने वाले चारों पदार्थों को भक्त गुरु कृपा से ही प्राप्त कर पाते हैं, इसलिए हमें ज़रूरत है ऐसे सतगुरु की जो हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चार पदार्थों का बोध करवा दें।

एक

क्या पहला पदार्थ ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश है, दूसरा अनहद नाद है, तीसरा ईश्वर का नाम और और चौथा ब्रह्म ज्ञान का अमृत है । आइए इस पर भी विचार कर लेते हैं।

हम जो दीपक मंदिरों में प्रज्वलित करते है, वह इसी अर्थात ब्रह्म ज्ञान के प्रकाश की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बिना आँख वाला व्यक्ति भी देख सकता है।

गुरु वाणी में कहा गया है-

कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै।

राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै।।  (गुरवाणी-1/1323)

जिस प्रकार लकड़ी में आग छिपी हुई है जो युक्ति के द्वारा प्रकट होती है। ठीक उसी प्रकार सभी जीवों में प्रभु के नाम की ज्योति समाई हुई है। जरूरत है गुरु के द्वारा उस युक्ति को जानने की, जिसके हम परम् ज्योति (Divine Light) का दर्शन कर सकें। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।

अर्थात् परमात्मा जो कि ज्योतियों की भी परम् ज्योति है जिसे अंधकार से परे कहा जाता है। वह परमात्मा ज्ञान (Divine Knowledge) के द्वारा ही जानने योग्य है।  यह ज्ञान केवल गुरु ही प्रदान कर सकता है।

दो

क्या दूसरा फल या पदार्थ अनहद नाद है। हम मंदिरों में घंटियाँ बजाते है, वह इसी अनहद नाद की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बहरा व्यक्ति भी सुन सकता है। जब अनहद नाद सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर उठता है, तो इस प्रक्रिया में अनहद नाद का प्रकटीकरण होता है। इससे पहले साधक इस नाद को सुन या प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वतः अपने आप ही बजता है। लेकिन उस संगीत की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही सम्भव है। उसके लिए गुरूवाणी में कहा गया है-

निरभउ कै घरि बजावहि तुर। अनहद बजहि सदा भरपूर। (गुरूवाणी-971)

उस प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है।

ऋग्वेद में इस आवाज के बारे में कहा है कि-

ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः।। (ऋ.-4/23/8)

सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान आवाज़ बहरे मनुष्य को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, बिष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। यह सब कुछ अनहद नाद के लिए ही है।

तीन

तीसरा पदार्थ है ईश्वर का नाम और उसका जाप करना। शास्त्रों में कहा गया है कि जब एक शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वह ईश्वर नाम का जाप करता है। फिर क्या है नाम-सुमिरन? जिससे मन वश में आए। संतों की वाणी है-

सुमिरन सूरत लगाई कै, मुखते कछु न बोल।

बाहर के पट बंद कर, भीतर के पट खोल।।

तेरे बाहर के पट बंद हो जाए, तू सुमिरन ऐसा कर।

कबीर दास जी कहते है-

सतगुरु ऐसा कीजिए पड़े निशाने चोट।

सुमिरन ऐसा कीजिए जीभ हिले न होठ।।

सुमिरन वही करना है जिसे करने के लिए न जुबान हिलानी पड़े न ही होंठ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।

भए नाम जपि जीव बिसोका। (रा.च.मा.-1/27/1)

चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों कालों में केवल नाम का सुमिरन करने से ही जीव शोक से रहित हो गए। जब पूर्ण सतगुरु मिलते हैं तो उस अव्यक्त अक्षर को बता देते हैं जो मनुष्य के ह्रदय में पहले से ही रमा हुआ है।

चार

क्या चौथा पदार्थ या फल अमृत है। सभी शास्त्रों में अमृत की चर्चा की गई है। यह अमृत कहां है। क्या यह चरणामृत में है। परंतु चरणामृत को हम अमृत कैसे कह सकते हैं। चरणामृत तो हमारे अधरों पर लगने के उपरांत अपवित्र हो जाता है। अमृत को तो सदैव पवित्र रहना चाहिए। शिवलिंग पर कलश से बूँद-बूँद जल निरंतर बरसता रहता है। यह एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं।

गगन मंडल अमृत का कुआ तहाँ ब्रह्मा का वासा।

सगुरा होवे भर भर पीवे निगुरा मरत प्यासा।।

गगन में उल्टा कुँआ है, जहाँ वह परमात्मा स्वयं विराजमान है। अब यदि हम आकाश में खोजने लग जाएँ तो सारी जिंदगी यह कुआं नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ सांसारिक कुएँ की नहीं बल्कि उस ‘कुएँ’ की बात की गई है जो शरीर के अंदर ही है। उपनिषद् में इस स्थल की स्पष्ट व्याख्या की गई है-

अब्जपत्रमधः पुष्पमुर्ध्वनालमधोमुखम्।

अर्थात् ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग (नीचे) की ओर मुख किए पुष्पित एक कमल ब्रह्मरंध्र में स्थित है।

एक अन्य सरस वाणी में संत दरिया ने गाया ‘बुन्द अखंडा सो ब्रह्मंडा’ हमारे सिर में व्याप्त अन्तर्गगन या ब्रह्माण्ड से निरंतर, अखण्ड रूप में अमृत की बूँदे टपकती रहती हैं। पर इस अमृत की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञान की दीक्षा और उसकी साधना के द्वारा ही की जा सकती है। अमृत का यह रसमय पान ही जीवात्मा की जन्म-जन्मांतर की प्यास बुझाता है।

इस प्रकार इन चार फल का अर्थ अत्यंत गूढ़ है जो कि बगैर गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता है। अंत में यह कहना उचित होगा कि आपको सबसे पहले गुरु का महत्व समझना है फिर गुरुवर की ही आज्ञा से उनके ही आशीर्वाद से आपको आगे बढ़ना है फिर अपने बुद्धि को आप निर्मल करें अगर आपके बुद्धि में कोई दूसरी चीजें हैं तो वह आपकी बुद्धि को बिगाड़ लेंगे, अतः सबसे पहले ईश्वर की आराधना करने से पहले आप अपने बुद्धि को बिल्कुल ही निर्मल कर ले उसके अंदर किसी भी तरह की कोई दूसरी चीज ना अर्थात ना तो बुद्धि में आपके प्रकाश आपकी बुद्धि में हो और ना ही आपकी बुद्धि में अंधकार हो आपकी बुद्धि तरह से पूरी तरह से तब आपको अगर आप हनुमान जी को याद करोगे, कहोगे, आपको बल बुद्धि विद्या प्रदान करेंगे और आपके सभी कष्टों को दूर करेंगे।