हमारे हनुमान जी विवेचना भाग इक्कीस: जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं

पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बन्दि महा सुख होई।।

अर्थ
हे हनुमान गोसाईं आपकी जय हो। आप मुझ पर गुरुदेव के समान कृपा करें।
जो इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करता है, उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और महान सुख की प्राप्ति होती है।

भावार्थ
हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! श्री हनुमान जी आप अपने भक्‍तों के रक्षक हैं, आपकी बारंबार जय हो। एक गुरु की तरह आपने मुझ पर ज्ञान की वर्षा की है। आप मुझ पर श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए। जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा। उसे परमानन्द मिलेगा। उसे महासुख और मोक्ष की प्राप्ति होगी। आपकी कृपा से मेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।

संदेश
अपने गुरु के दिए हुए ज्ञान का अनुसरण करें, इससे आप जीवन में सुख अर्जित कर पाएंगे।

हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-

1-जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
2-जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महा सुख होई।।

ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना
हनुमान चालीसा की पहली चौपाई का प्रारंभ जय हनुमान शब्द से होता है। इस चौपाई में जय शब्द तीन बार आया है। इसके अलावा हनुमान जी के साथ अतिरिक्त रूप गोसाई शब्द का इस्तेमाल किया गया है। गोसाई शब्द गोस्वामी का अपभ्रंश है। इस चौपाई के रचयिता का नाम भी गोस्वामी तुलसीदास है। इस प्रकार यह चौपाई एक बहुत महत्वपूर्ण चौपाई हो गई है। इस चौपाई में पहली बार तुलसीदास जी हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं। इसके पहले की चौपाइयों में हनुमान जी की प्रशंसा की गई है। हर चौपाई में उनकी तारीफ की गई है, परंतु कुछ मांगा नहीं गया है। इस इस प्रकार इस चौपाई में दूसरे चौपाइयों से तीन बातें अधिक है।

1-एक ही शब्द का तीन बार प्रयोग
2-हनुमान जी के नाम के साथ तुलसीदास जी ने गोसाई शब्द का प्रयोग किया।
3-इस चौपाई में हनुमान जी से मांग की गई है।

एक-एक कर तीनों बिंदुओं पर चर्चा करते हैं-

जय शब्द का तीन बार प्रयोग किया गया है। जय शब्द का उपयोग कई अर्थों में किया जाता है। सबसे सामान्य अर्थ है आप की विजय हो। यह एक प्रकार की प्रशंसा करने जैसा शब्द है। बगैर किसी लड़ाई या प्रतियोगिता के किसी को विजयी बना दिया जाता है। हमारे देश में भजन कीर्तन में, राजनीतिक नारों में किसी नेता के आने पर इस शब्द का खूब इस्तेमाल होता है। इस शब्द में एक भावना भी छुपी हुई है कि आपकी किसी भी लड़ाई में, किसी भी प्रतियोगिता में विजय हो। एक प्रकार की शुभकामना भी है। इस शब्द का प्रयोग करते समय याचना का भाव भी रहता है। इस तरह से जय शब्द का प्रयोग कर गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी को बताना चाहते हैं कि मैं अब आपसे याचना करने वाला हूं। आपसे अब मैं कुछ मांगूंगा। अब तक मैंने आपकी प्रशंसा की है। अब मैं उस प्रशंसा का फल लेने का प्रयास करने जा रहा हूं।
अब इसके बाद प्रश्न उठता है कि इस शब्द का तीन बार प्रयोग क्यों किया गया है। आज समाज में मान्यता है कि अगर किसी शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाए तो वह सत्य हो जाता है। जैसे कि अगर हम किसी से वादा करते हैं और उस वादे को तीन बार दोहराते हैं तो यह माना जाता है कि हम इस वादे पर कायम रहेंगे। इसी प्रकार अगर हम किसी से कोई मांग कर रहे हैं और उस मांग को तीन बार दोहरा रहे हैं तो यह माना जाएगा कि हमें इस चीज की अत्यंत आवश्यकता है।

हमारी सभी बाधाएं, समस्याएं और व्यथाएं तीन स्त्रोतों से उत्पन्न होती है-

1) आधिदैविक- उन अदृश्य, दैवी शक्तिओ के कारण जिन पर हमारा बहुत कम और बिल्कुल नियंत्रण नहीं होता। जैसे भूकंप, बाढ़, ज्वालामुखी इत्यादि।
2) आधिभौतिक- हमारे आस-पास के कुछ ज्ञात कारणों से जैसे दुर्घटना, मानवीय संपर्क, प्रदूषण, अपराध इत्यादि।
3) आध्यात्मिक- हमारी शारीरिक और मानसिक समस्याएं जैसे रोग, क्रोध, निराशा इत्यादि।

मंत्रोचार के दौरान जब हम किसी शब्द का तीन बार प्रयोग करते हैं जैसे संकल्प देते समय विष्णु शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है तो इसका अर्थ होता है कि हम सच्चे मन से प्रार्थना कर रहे हैं। शांति पाठ के दौरान भी शांति शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है। पहली बार उच्च स्वर में जिसमें हम दैवीय शक्तियों को संबोधित करते हैं। दूसरी बार कुछ धीमे स्वर में इस बार हम अपने पास के वातावरण को संबोधित करते हैं और तीसरी बार अत्यंत धीमे स्वर में जब हम अपने आप को संबोधित करते हैं। उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो रहा है कि अपनी बात पर आध्यात्मिक रूप से बल देने के लिए गोस्वामी जी ने जय शब्द का तीन बार प्रयोग किया है।

अगला बिंदु है हनुमान जी के साथ गोसाईं शब्द का इस्तेमाल क्यों किया गया है। गोसाई शब्द एक उपाधि के रूप में हनुमान जी के नाम के साथ में उपयोग की गई है। गोसाई शब्द के कई अर्थ हैं। जिसमें से एक अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया हो अर्थात जितेंद्रीय।

अध्यात्मिक गुरु श्री प्रभुपाद जी ने अपनी पुस्तक “भगवत गीता यथारूप” में बताया है कि-

जो इन छह वस्तुओं- वाणी, मन, क्रोध, जीभ, पेट और जननांगों को नियंत्रित कर सकता है, उसे स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है। गोस्वामी का अर्थ है गो या इंद्रियों का स्वामी। जब कोई संन्यास को स्वीकार करता है, तो वह स्वत: ही स्वामी की उपाधि धारण कर लेता है।

इसके अलावा गो शब्द का एक अर्थ वेद भी होता है। वेद की स्वामी को भी गोस्वामी कहा जाता है। सनातन धर्म में वेद को वेद भगवान कहा जाता है। इस प्रकार जो वेद भगवान की भी ऊपर है उनको गोस्वामी कहा जाएगा। सनातन धर्म में गोस्वामी के लिए मान्यता है कि यह सब के गुरु होते हैं। गोस्वामीयों के गुरु भगवान शिव को माना जाता है। हनुमान जी क्योंकि रूद्र के अवतार हैं, अतः उनसे बड़े भगवान शिव हुए जोकि गोस्वामीयों के गुरु हैं। तभी तो यह कहावत प्रचलित है कि-

” जगत गुरू ब्राह्मण, ब्राह्मण गुरू संन्यासी और संन्यासी गुरू अविनाशी।”

अर्थात इस संसार का गुरू ब्राह्मण है, ब्राह्मण का गुरू संन्यासी है और संन्यासी का गुरू अविनाशी (शिव) है। कहने का मतलब यह है कि संन्यासी (गोस्वामी) का कोई गुरू नहीं होता और यदि होता भी है तो वह गुरू कोई इंसान नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं।

यह भी संभव है गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी से अपना जुड़ाव बताने के लिए भी हनुमान जी के साथ गोस्वामी शब्द का प्रयोग किया हो। मेरा व्यक्तिगत मत है कि तुलसीदास जी ने हनुमान जी के लिए गोस्वामी शब्द का प्रयोग उनके जितेंद्रीय होने और भगवान शिव का अंश होने के कारण किया है।

अब अगला पद है “कृपा करहु गुरुदेव की नाईं “

अर्थात आप हमारे ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें।

यहां पर गोस्वामी तुलसीदास जी पहली बार पवन पुत्र हनुमान जी से कृपा करने की याचना कर रहे हैं। साथ में हनुमान जी को यह भी बता रहे हैं कि आप हमारे ऊपर गुरुदेव की तरह से कृपा करें। यहां पर तो पहला प्रश्न है यही है कि कृपा गुरुदेव जैसी क्यों होनी चाहिए? क्या माता-पिता की कृपा, बड़े भाई-भाभी की कृपा या अपने बड़े बुजुर्गों की कृपा क्या गुरुदेव की कृपा से कम है? तुलसीदास जी ने गुरु की कृपा को इन सभी की कृपा से ऊपर माना है।

इसका एक कारण यह हो सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी को माता और पिता का प्यार और दुलार नहीं मिला। उनके जन्म के दूसरे दिन ही मां का निधन हो गया। पिताजी ने चुनियाँ नाम की एक दासी को इस नवजात बालक को सौंप दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन्म के समय ही राम-राम शब्द का उच्चारण किया था, अतः उनका नाम की रामबोला रख दिया गया था। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुए तो चुनियाँ भी नहीं रही। वे गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गए।

इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी को माता पिता और यहां तक की उनको पालने वाली महिला का प्यार भी पूरी तरह से नहीं मिल पाया। उनके गुरु श्री नरहरि बाबा ने भगवान शंकर की प्रेरणा से रामबोला को ढूंढ निकाला। श्री नरहरि बाबा ने ही उनका नाम विधिवत रूप से राम बोला से तुलसीदास रखा। उसके उपरांत वे तुलसीदास जी को लेकर अयोध्या गए । वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुक्ला पंचमी (शुक्रवार) को उनका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक तुलसीदास जी ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया। इसको देखकर सब लोग चकित हो गये। बाद में नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।

तुलसीदास जी ने 14 से 15 साल की उम्र तक सनातन धर्म, संस्कृत, व्याकरण, हिन्दू साहित्य, वेद दर्शन, छः वेदांग, ज्योतिष शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त की। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक तुलसीदास को माता पिता या अपने अन्य स्वजन का प्यार और कृपा नहीं मिल पाई। तुलसीदास जी को यह प्यार और कृपा उनके गुरुदेव श्री नरहरि बाबा से ही मिली। अतः यह संभव है कि बालक तुलसीदास के मन में गुरुदेव का स्थान सबसे ऊपर आ गया हो। तुलसीदास जी के इस विचार को हमने पुस्तक आरंभ करते समय पहले दोहे में ही बताया भी है। इसलिए उन्होंने यहां भी हनुमान जी से गुरुदेव जैसी कृपा की मांग की होगी।

कुछ लोग दूसरी बात कहते हैं उनका कहना है कि माता-पिता और अन्य स्वजनों की कृपा में एक स्वार्थ भी होता है। माता-पिता को इस बात की उम्मीद होती है कि हमारा पुत्र बड़ा होने के बाद हमारी सेवा करेगा। अर्थात की गई कृपा के प्रतिफल की चाहत होती है, परंतु गुरुदेव के अंदर इस प्रकार की किसी प्रतिफल की कोई उम्मीद नहीं होती है। गुरु से शिक्षा लेने के बाद शिष्य वहां से चला जाता है। कई बार तो दोबारा लौटकर भी नहीं आता है। परंतु इस बात से गुरुदेव के अंदर किसी तरह की कोई भी विकार नहीं आता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं की कृपा निस्वार्थ होती है। अतः यह कृपा माता-पिता की कृपा से श्रेष्ठ है।

गुरुदेव की कृपा के बारे में संस्कृत का श्लोक अत्यंत उपयुक्त है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। गुरुदेव के प्रकाश के बारे में विभिन्न संतो ने बहुत कुछ लिखा है। सभी ने बताया है कि गुरुदेव की महिमा अपरंपार है । गुरु शब्द में “गु” का अर्थ है अंधकार और “रू” का अर्थ है उसको हटाने वाला। इस प्रकार गुरु शब्द का अर्थ हुआ, जो हमारे अंदर से अंधकार को हटा दे अर्थात प्रकाश ले आए। हमको अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाने वाले को गुरुदेव कहते हैं। सभी संतो ने एवं सभी ग्रंथों में गुरुदेव की महिमा का बखान किया गया है।

कबीरदास जी लिखते हैं कि-

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।

अर्थात, गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

संत कबीर ने यह भी लिखा है-

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड।।

अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।

संत शिरोमणि तुलसीदास ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है। वे अपनी कालजयी रचना रामचरितमानस में लिखते हैं-

गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

अर्थात, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। संत तुलसीदास जी तो गुरू को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही मानते हैं। वे रामचरितमानस में लिखते हैं-

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

गुरु हमारे सदैव हितैषी व सच्चे मार्गदर्शक होते हैं। वे हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचते हैं और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे हमें सच्चा मानव बनाना चाहते हैं और इसके लिए कभी-कभी वे दंड का भी उपयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में संत कबीर ने लाजवाब अन्दाज में कहा है-

गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

अर्थात, गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं गुरुदेव का पद ब्रह्मांड में सबसे ऊंचा है इसलिए संत तुलसीदास जी ने हनुमान जी से प्रार्थना की है कि वे उनके ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें।

अगला प्रश्न क्या है कि गुरुदेव किसके? हनुमान जी के गुरुदेव जैसी या हमारे अपने गुरुदेव जैसी कृपा चाहिए है। हनुमान जी के गुरुदेव भगवान सूर्य हैं। हनुमान जी को शास्त्रों का पूरा ज्ञान भगवान भुवन भास्कर ने ही दिया है। मैं अभी बता चुका हूं कि गोसाई लोगों के गुरु भगवान शिव या परमपिता परमात्मा ही होते हैं। संभवत वे कहना चाहते हैं कि परम वीर हनुमान जी के गुरु भगवान शिव हैं। तुलसीदास जी हनुमान जी से यह मांग रहे हैं कि जिस तरह से हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव उनके ऊपर कृपा दृष्टि रखते हैं, उसी प्रकार हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर कृपा दृष्टि करें। तुलसीदास जी के ऊपर उनके गुरुदेव की कृपा का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं। गुरुदेव नरहरी बाबा ने भी तुलसीदास जी के ऊपर यह कृपा भगवान शिव की आज्ञा अनुसार ही करी थी। इस प्रकार चाहे हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव हो या तुलसीदास जी के गुरुदेव नरहरि बाबा हों दोनों की कृपा अद्भुत है। इस प्रकार थोड़ी ही शब्दों में गुरुदेव की कृपा मांग कर पूरी दुनिया का सुख तुलसीदास जी ने हनुमान जी से मांग लिया।

कोई भी याचक देखने में छोटी सी प्रार्थना करता है, परंतु अक्सर वह प्रार्थना अत्यंत बड़ी होती है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी ने हनुमान जी से पूरे ब्रह्मांड का सुख मांग लिया है। उन्होंने तीन बार हनुमान जी से प्रार्थना भी कर ली है। जिससे कि हनुमान जी इस प्रार्थना को प्रदान करने के लिए विवश हो जाएं। अगली चौपाई और भी अद्भुत है। तुलसीदास जी कहते हैं-

“जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महा सुख होई।।”

इसका साधारण अर्थ भी हम आपको पहले बता चुके हैं। महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका महाकवि तुलसीदास जी ने बताया है। आप हनुमान चालीसा को शत बार या सत बार पढ़े आपको महा सुख की प्राप्ति होगी। वास्तव में सत शब्द से सत्य ,7 या सौ तीनों का आभास होता है। इस पर हम चर्चा थोड़ी देर बाद करेंगे कि “सत्य” सही है या “7” सही है या “100” सही है। महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका है। आपको कोई मेहनत नहीं करना है, कोई परिश्रम नहीं करना है और सब कुछ प्राप्त हो जाना है। परंतु अगर आप पूरी हनुमान चालीसा को पढ़ते और गुनते हुए इस चौपाई पर पहुंचेंगे तब आपको समझ में आएगा यह कितना कठिन कार्य है।

पहली बात यह है की हनुमान चालीसा को पढ़ना नहीं है पाठ करना है। हिंदू धर्म में पाठ करना और पढ़ना दोनों अलग-अलग प्रकार से होते हैं। किस ग्रंथ को पढ़ने में उसको एक तरफ से पढ़ा जाता है और पन्ने पलट कर के हम पढ़ते हुए अंतिम पन्ने पर पहुंच जाते हैं। परंतु पाठ करते समय हमको अपने चित्त को एकाग्र करना होता है। हमारे मन में उस पुस्तक के प्रति आदर का भाव होना चाहिए और यह आदर हमारे वचन में दिखना चाहिए। अर्थात जब हम हनुमान चालीसा का पाठ करें तब हमारा मन पाठ करने वाली जगह और हनुमान चालीसा की लाइनों पर होना चाहिए। जिस समय हम हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं उस समय हमारा ध्यान अपने खेत पर या अन्यत्र नहीं होना चाहिए। हमारा ध्यान केवल उस लाइन पर ही होना चाहिए जिसको हम पढ़ रहे हैं। पवित्र पुस्तकों के पाठ प्रारंभ करने के कुछ नियम है जैसे पुस्तक को माथे पर लगाना। उसकी आरती करना। दीपक जलाना। भरा हुआ कलश रखना। दीपक, कलश, भूमि, गणेश जी और पुस्तक सब की पूजा करना। गणेश जी तथा ग्रंथ के देवता को आवाहन करना। इन सबके बाद ही हमको ग्रंथ का पाठ प्रारंभ करना चाहिए।

इसी तरह से जब हम ग्रंथ का पाठ समाप्त करते हैं तब भी कुछ क्रियाएं करनी पड़ती है। ग्रंथ का पाठ करने में ग्रंथ और उस ग्रंथ के देवता के प्रति हमारी श्रद्धा आवश्यक है। आइए अब सत बार पाठ करने के अर्थ की विवेचना करते हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है सत शब्द का प्रयोग यहां पर तीन प्रकार से हो सकता है। सत शब्द सत्य शब्द का अपभ्रंश हो सकता है। यह शत अर्थात 100 का भी अपभ्रंश हो सकता है। इसके अलावा सत शब्द से 7 का भी आभास मिलता है।

कुछ लोग जिन को आसान कार्य पसंद है वे कहेंगे कि सत शब्द का अर्थ यहां पर 7 से है। 100 बार पाठ करने से 7 बार पाठ करना अत्यंत आसान है। हनुमान चालीसा का 100 बार पाठ करना एक कठिन कार्य है और इस कार्य में काफी समय भी लगना स्वाभाविक है। जो थोड़ा कट्टर लोग हैं शब्द का अर्थ 100 बार ही निकालेंगे। उनका कहना होगा की आसान तरीका पकड़ लेने से कार्य सफल नहीं होते हैं। सफलता का रास्ता हमेशा कठिन ही होता है। शॉर्टकट से कभी सफलता प्राप्त नहीं होती है। हनुमान चालीसा के बार बार पाठ करने से मिलने वाली सफलता के बारे में दैनिक जागरण के डिजिटल एडिशन में तलवार दंपत्ति के बारे में खबर पढ़ने योग्य है।

दैनिक जागरण के 14 अक्टूबर 2017 के 3:56 पीएम, डिजीटल एडिशन, जिसे 15 अक्टूबर को प्रातः काल को अपडेट किया गया था, उसमें एक समाचार है। समाचार यह है कि मशहूर तलवार दंपति को बचाने में जितना हाथ गवाहों और वकीलों का है उससे ज्यादा हनुमान चालीसा का है।

जेल के सूत्रों के मुताबिक तलवार दंपत्ति को जेल में जब भी समय मिलता वह हनुमान चालीसा का जाप करने लगते। 12 अक्टूबर 2017 को जब न्यायालय का फैसला आया तो डॉक्टर तलवार ने कहा कि हनुमान जी ने हमें बचा लिया। डॉ तलवार ने जेल में और लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने की सलाह दी थी।

आइए अब तीसरे अर्थ की बात करते हैं सत का अर्थ यहां पर सत्य को माना गया है और बार का अर्थ आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) से है। जो व्यक्ति सत्य की आवृत्ति होने तक इसका पाठ करता है अर्थात सत्य की प्राप्ति होने तक इसका पाठ करता है, वह भवबन्धन से पार होकर महासुख को प्राप्त करता है। यहाँ सुख नहीं बल्कि महासुख मिल रहा है।

मेरी विचार से सत बार पाठ करने का अर्थ है कि हनुमान चालीसा का पूरी श्रद्धा और नियम के साथ बार बार प्रतिदिन पाठ करें। प्रतिदिन पाठ करने से आपको एक ना एक दिन सत्य की प्राप्ति अवश्य हो जावेगी। जब आपको सत्य की प्राप्ति हो जाएगी तब महासुख आपके पास अपने आप आ जाएगा।

आईये अब हम पाठ के नियमों की बात करते हैं। पाठ के नियम सामान्य कर्मकांड के नियम होते हैं। परंतु अगर किसी विशेष कारणों से आप किसी नियम को पूर्ण नहीं कर पाते हैं तो उसको पूरा करने कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है आपकी श्रद्धा और एकाग्रता।

इस चौपाई में एक महत्वपूर्ण शब्द है “छूटहि बन्दि”। तुलसीदास जी के कथनानुसार जब आपके बंधन टूट जाएंगे तब आपको महा सुख की प्राप्ति होगी। अब हमको यह भी विचार करना पड़ेगा कौन से बंध टूटने हैं महासुख क्या है?

पहले हम बंधनों के टूटने की बात करते हैं। कौन से बंधन है जिन का टूटना आवश्यक है। हर व्यक्ति की अलग-अलग वैचारिक मान्यताएं होती हैं। ये वैचारिक मान्यताएं उसके देश-काल, परिस्थितियां, पारिवारिक संस्कार, शिक्षा दीक्षा आदि से बनती हैं। कोई भी व्यक्ति इन्हीं अपनी मान्यताओं के आधार पर कार्य करता है। दो व्यक्ति भले ही एक जैसे शारीरिक रूप के हों परंतु उनकी मान्यताएं अलग अलग हो सकती हैं। यही मान्यताएं व्यक्ति को पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, ऊंच-नीच, गरीब-अमीर आदि के बंधनों में बांध कर कुछ ऐसे कार्य करवाती हैं जिससे हमें दुख पहुंचता है। उदाहरण के रूप में एक गरीब व्यक्ति धनवान के धन को देख कर के ईर्ष्या करता और उस ईर्ष्या के कारण दुखी होता है। अगर हम अपनी वैचारिक बंधनो से मुक्त हो जायें तो हम इस संसार को और इस संसार चलाने वाली परम सत्ता को समझ और देख पाएंगे। परम सत्ता को समझने के बाद हम सदा आनंदित रह सकते है। अब हमारे दुखों का मूल ही समाप्त हो गया तो दुख कैसा।

ईश्वर तो आनंद स्वरूप है। उसको हम तभी अनुभव कर पाते है जब हम आनंद में रहते हैं। बच्चे वैचारिक रूप से के किसी बंधन से नहीं बधें होते हैं, इसलिए वे सदा आनंदित रहते हैं। इसलिए बच्चों को ईश्वर का रूप कहा गया है। व्यावहारिक जीवन में मुक्ति यानी दु:ख, दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति। प्रत्येक व्यक्ति परेशान है। दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नहीं है। दु:ख से आपको पीड़ा नहीं होगी। दु:ख आना अलग बात है और पीड़ा होना अलग बात है। जीवन का दृष्टिकोण (Out look) बदलेगा तो दु:ख आयेगा पर पीड़ा नहीं होगी।

अब आइए हम महासुख की चर्चा करते हैं। सुख आपके सोच की अवस्था है। एक व्यक्ति महल में रहकर के भी दुखी हो सकता है और दूसरा अपनी कुटी में रह कर के भी सुखी रहता है। ऐसा क्यों होता है? इस बात के कई उदाहरण आपके आस-पास ही मिल जाएंगे। मैं एक कहानी आपको सुना रहा हूं। मुंबई के एक शानदार टावर में एक परिवार रहता है। बहुत अच्छी आमदनी और परिवार के सभी लोग स्वस्थ। इसी टावर के सामने एक छोटा सा मकान था। टावर में रहने वाली गृहणी प्रति दिन देखती थी कि सामने के छोटे मकान में रहने वाले पति पत्नी शाम को 7 बजे से रात के 10 बजे तक निरंतर आपस में किलोल करते रहते थे। टावर में रहने वाली गृहणी का पति प्रातःकाल 6 बजे घर से निकल जाता था और रात के 10 बजे के आसपास घर लौटता था। लौटने के बाद भी पति काफी तनाव में रहता था। पत्नी से ठीक से बात नहीं कर पाता था। सुबह फिर अपने काम पर निकल जाता था। टावर में रहने वाली धनाढ्य यही सोचती थी कि हमसे अच्छी तो यह सामने वाली गरीब औरत है जो अपने पति के साथ शाम के 7 बजे से रात के 10 बजे तक लगातार मस्ती करती है। आपको ऐसी कई कहानियां मिल जायेंगी। सुख की हर व्यक्ति की परिभाषा अलग-अलग होती है। यह परिभाषा उस व्यक्ति के परिस्थितियों और विचारों पर निर्भर करती है।

आइए अब हम समझते हैं कि महासुख क्या है?

हनुमान चालीसा पढ़कर मनुष्य में निर्भयता, भावमयता, ज्ञान, अस्मिता आदि गुण आना चाहिए। अगर ये आप में नहीं आए तो यह माना जाएगा कि आपने हनुमान चालीसा का पाठ नहीं किया है। आपकी बुद्धि अगर कामना ग्रस्त है तो आपकी बुद्धि में प्रकाश नहीं घुस सकता। कामना रहित बुद्धि में प्रकाश आता है। वास्तव में महासुख ‘नही चाहिए’ का सुख यानी पाश (बंधन) से मुक्त होने का सुख है।

व्यक्ति अपने विचारों से परिवर्तित होता है अगर उसके विचार उत्तम हो जाएंगे तो व्यक्ति उत्तम कोटि का हो जाएगा। विचार शब्दों में व्यक्त होते हैं और शब्दों में असीमित शक्ति है। इसलिए शब्दों को ब्रह्म भी कहा गया है। मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं-

एक राजा था। उसके दरबार में एक कवि आया करता था और राजा को कविता सुनाता था। उस कवि का छोटा भाई भी कवि था। एक दिन कवि को बाहर गाँव जाना पड़ा। उसने अपने छोटे भाई को राजदरबार में जाने को कहा। जब छोटा भाई दरबार में गया। उसने राजा को अपना परिचय दिया और कविता पढ़ने की आज्ञा चाही। राजा ने कविता पढ़ने की आज्ञा दे दी। कविता पढ़ने के पहले कवि ने शर्त लगाई कि आप पहले अपना हाथ धो कर बैठिए। राजा आश्चर्यचकित हो गया। राजा ने पूछा क्यों? नए कवि ने कहा कि मैं वीर रस का कवि हूं। मेरे बड़े भाई श्रृंगार रस के कवि हैं। बड़े भाई की कविताएं सुन सुन कर के आपका हाथ इधर-उधर लगा होगा। मेरी कविता सुनने के बाद आपका हाथ अपनी मूंछ पर जाएगा। मैं चाहता हूं कि आपका हाथ मूंछ पर जब जाए तब वह पूर्णतया स्वच्छ हो।

राजा ने कहा, ‘तेरी कविता सुनने के बाद यदि मेरा हाथ मूँछों पर नहीं गया तो?’ ‘मेरी गर्दन उडा देना’ कवि ने कहा।

ऐसा स्वीकृत होने पर राजा ने हाथ धोये। उसको लगा कि इस घमण्डी पण्डित का घमण्ड उतारना चाहिए। ऐसा निश्चय करके राजा ने अपने हाथ पीछे रखे, जिससे भूल से भी हाथ मूँछों पर न जाएँ। उसके बाद कवि ने काव्य पाठ प्रारंभ किया। कवि ने वीर रस प्रकट करने वाली कविताओं का गायन किया। राजा राजपूत था। पाँच मिनट में ही वह कवि के काव्य में तल्लीन हो गया। यकायक राजा का हाथ मूँछ पर गया। राजा को इसका भान ही न रहा। वह कवि पर खुश हुआ और उसको इनाम दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द में शक्ति है, वाणी में सामथ्‍​र्य है।

कहने का अर्थ है अगर आप का हनुमान चालीसा का पाठ नियमित, एकाग्र चित्त और उत्तम कोटि का होगा तो आपके शब्दों में अद्भुत ताकत आ जाएगी। आपके शब्दों से आपको और आपके आसपास के लोगों को महा सुख प्राप्त होगा।

हम कई बार लोगों से बातचीत में कहते हैं कि मैंने तुमको सौ बार कहा था कि तुम यह काम कर लो, मगर तुमने नहीं किया। पिता-पुत्र से बोलता है कि मैंने तुम को सौ बार पढ़ने के लिए बोला, मगर तुम नहीं पढ़े। अंत में तुम फेल हो गए। इन दोनों उदाहरणों में सौ बार का अर्थ है कि मैंने तुमको बार-बार कहा है। इसी प्रकार तुलसीदास जी हम लोगों से कह रहे हैं, सत बार पाठ करो, सौ बार पाठ करो अर्थात बार बार पाठ करो। अगर आप बार-बार पाठ करोगे तो आप हनुमान जी जो शिव के अवतार हैं गोस्वामी हैं उनकी आप पर कृपा होगी। आपके सभी बंधन टूट जाएंगे। आपको महा सुख प्राप्त होगा।

‘हनुमान चालीसा’ मे छुपे हुए गूढ अर्थ को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। हनुमत चरित्र पर बार बार चिन्तन करना चाहिए तथा उसके अनुरुप जीवन को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। तो ही हमे सब बंधनों से मुक्ति मिलकर परम आनन्द की प्राप्ति होगी। इसीलिए तुलसदास जी ने लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महा सुख होई।’

जय श्री राम
जय हनुमान