हमारे हनुमान जी विवेचना भाग उन्नीस: तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै

पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्त काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

अर्थ
आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है। अपने अंतिम समय में आपकी शरण में जो जाता है, वह मृत्यु के बाद भगवान श्रीराम के धाम यानि बैकुंठ को जाता है और हरी भक्त कहलाता है। इसलिए सभी सुखों के द्वार केवल आपके नाम जपने से ही खुल जाते है।

भावार्थ
भजन का अर्थ होता है ईश्वर की स्तुति करना। भजन सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। हनुमान जी और उन के माध्यम से श्री रामचंद्र जी को प्राप्त करने के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है। भजन कामनाओं से परे होना चाहिए। अगर आप कामनाओं से रहित निस्वार्थ रह कर हनुमान जी या श्री रामचंद्र जी का भजन करेंगे तो वे आपको निश्चित रूप से प्राप्त होंगे।

अगर आप उपरोक्त अनुसार भजन करेंगे मृत्यु के उपरांत रघुवर पुर अर्थात बैकुंठ या अयोध्या पहुंचेंगे और वहां पर आपको हरि भक्त कहा जाएगा। यहां पर गोस्वामी जी ने रघुवरपुर कहां है यह नहीं बताया है। रघुवरपुर बैकुंठ भी हो सकता है और अयोध्या भी। दोनों स्थलों में से किसी जगह पर मृत्यु के बाद पहुंचना एक वरदान है।

संदेश
जीवन में अच्छे कर्म करो, अच्छी चीजों को स्मरण करों। इससे व्यक्ति का अंतिम समय आने पर उसे किसी भी बात का पछतावा नहीं रहता है और उसे रघुनाथ जी के धाम में शरण मिलती है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-

1-तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥
2-अन्त काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा प्राप्त होती है। यह सभी दुखों का नाश करती है और आपका बुढ़ापा और परलोक दोनो सुधारती है।

विवेचना
पहली चौपाई है “तुम्हारे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख विसरावें”। इस चौपाई का अर्थ है आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं और जन्म जन्म के दुख समाप्त हो जाते हैं। पहली बात तो यह है की भजन क्या होता है और दूसरी बात यह है कि हनुमान जी का भजन कैसे किया जाए, जिससे हमें श्री राम चंद्र जी प्राप्त हो जाए।

भजन संगीत की एक विशेष विधा है। इस समय दो तरह के संगीत भारत में प्रचलित है। पहला पश्चिमी संगीत और दूसरा भारतीय संगीत। सनातन धर्म के भजन भारतीय संगीत के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संगीत के तीन मुख्य भेद हैं शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत। भजन का आधार इन तीनों में से कोई एक हो सकता है। देवी और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने वाले गीतों को भजन कहते हैं। अगर संगीत बहुत अच्छा है तो सामान्यतः उसको अच्छा भजन कहेंगे। परंतु भगवान के लिए इस संगीत का महत्व नहीं है। उनके लिए संगीत से ज्यादा आपके भाव महत्वपूर्ण हैं। संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे।

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध– छठे अध्याय के पहले श्लोक में प्रहलाद जी द्वारा असुर बालकों को उपदेश दिया गया है-

प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥१॥

प्रह्लादजी ने कहा- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

इस प्रकार समस्त योनियों में से केवल मानव योनि ही ऐसी है, जोकि परमात्मा के पास पहुंच सकती है। यह योनि अत्यंत दुर्लभ है। परमात्मा तक पहुंचने के लिए नियम, संयम और भजन का उपयोग करना पड़ता है। आपका जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र का अर्थ स्वच्छता नहीं है। मानव जीवन का मूल आत्मा है। आत्मा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है। यह शरीर कितना साफ सुथरा है, इससे आत्मा की पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ता है।

अगर कोई भी व्यभिचारी दुराचारी साफ-सुथरे कपड़े पहन ले तो उसको हम स्वच्छ नहीं कहेंगे। हमारी मां के कपड़े अगर घर के काम करते समय गंदे भी हैं तो भी वे कपड़े हमारे लिए सबसे ज्यादा साफ कपड़े हैं। किसी भी दुराचारी के कपड़ों से ज्यादा साफ है। मां के कपड़ों में हमारी श्रद्धा है। हम उस कपड़ों को सहेज कर रखेंगे। मां के बच्चे के लिए यह कपड़ा पवित्र है। भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? जीव जब धर्म के मार्ग पर चलेगा और निष्काम भक्ति रखेगा तब वह भगवान की दृष्टि से मैं पवित्र होगा।

संगीत के सात सुर हैं। सा रे ग म प ध नि सा इन्हीं सात सुरों पर पूरा संगीत टिका हुआ है। सा और रे यानी स्रोत। ग से अर्थ है हमारा गांव, अर्थात सा रे गा संगीत के तीन स्वर गांव की निश्चल धरती पर ही पाए जाएंगे। शहर की भीड़ भाड़ में जहां पर पैसे की दुकान चल रही है वहां पर संगीत के निश्चल स्वर हमें प्राप्त नहीं होंगे।

इन तीन सुरों के बाद अगला सुर “म” है। “म” का अर्थ है मानव। अब हम मनुष्य हो गए। गांव की निश्चल धरती पर संगीत के स्वर प्राप्त करने लायक हो गए। परंतु अब हमें “प” यानी पवित्र और पराक्रमी बनना है। पवित्र होने के बाद हम अब अपने देवता हनुमान जी को जानने के लायक हो गए। अगर आप “ध” धन के चक्कर में फंसे तो आप फंस गए। आप गांव के निश्चल मानव नहीं रहे। आपको तो कोई भी खरीद सकता है। थोड़ा सा वेतन, थोड़ी ज्यादा लालच देकर कोई भी आपके हृदय में परिवर्तन कर सकता है। अगर आपको ऋषियों के दिखाए हुए मार्ग से चलकर पवित्र बनना है तो आपको धन से बचना है और दूसरे “ध” यानी धर्म को अपनाना है।

आपको अपना धर्म और जीवात्मा का धर्म दोनों धर्म को निभाना है। आपका अपना धर्म जैसे कि अगर आप पुत्र हैं तो पिता की आज्ञा को मानना, अगर आप सैनिक हैं तो अपने कमांडर की बात को मानना आपका धर्म है। आपके जीवात्मा का धर्म है पवित्र रास्ते पर चलकर परमात्मा से एकाकार होना। परंतु यह कैसे होगा। आपको पवित्र रास्ते पर चलने के “नि” अर्थात नियमों को मानना पड़ेगा। पवित्र रास्ते के अंत में हमारा हनुमान बैठा हुआ है। अब हम अपने हनुमान से “सा” साक्षात्कार कर सकते हैं।

हे पवन पुत्र अब मैं आपका हूं। मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ। आपका हूँ अतः माँगना हो तो आप से ही माँगूँगा। अगर परिवार का कोई भी व्यक्ति पड़ोसी के पास माँगने जाता है तो पातकी कहलाता है और घर की बेआबरु होती है। आप तो सीताराम के दास हैं। अब श्रीराम से कुछ भी मांगना आपका काम है। मुझे कुछ भी दिलाना आपका काम है। इस प्रकार अपने को और हनुमान जी को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है-

‘तुम्हरे भजन राम को पावै,
जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’

पवित्र संगीत की एक बहुत अच्छी कहानी है। अकबर के दरबार में तानसेन जो एक महान संगीतज्ञ थे, रहा करते थे। एक बार उन्होंने अकबर को एक बहुत सुंदर तान सुनाई। इस तान को सुनकर अकबर अत्यंत प्रसन्न हो गया। उसने कहा तानसेन जी आप विश्व के सबसे बड़े संगीतज्ञ हो। तानसेन ने उत्तर दिया कि जी नहीं, मेरे गुरु जी मुझसे अत्यंत उच्च कोटि के संगीतकार हैं। अकबर इस बात को मानने को तैयार नहीं था। अकबर ने कहा अपने गुरु जी को मेरे पास बुलाओ। तानसेन ने जवाब दिया यह संभव नहीं है। मेरे गुरु जी अपने कुटिया को छोड़कर और कहीं नहीं जाते हैं। अगर आपको उनका संगीत सुनना है तो उनके पास जाना पड़ेगा और इस बात का इंतजार करना होगा कि कब उनकी इच्छा संगीत सुनाने को होती है। अकबर तैयार हो गया।

अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर गए। वहां पर जाकर इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि गुरुदेव कब अपना संगीत सुनाते हैं। एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा था। सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे। पक्षियों की चहचाहट चल रही थी और गुरुजी ने भगवान गोपालकृष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेड दिए थे। शुद्ध आध्यात्मिक संगीत बज रहा था। तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लिया। बादशाह अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसने तानसेन से कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे थे। गुरुदेव का संगीत सुनने के उपरांत आपका संगीत थोड़ा कच्चा लग रहा है। अकबर ने तानसेन से पूछा इतना अच्छा गुरु मिलने के बाद भी आपके संगीत में कमी क्यों है।

तानसेन ने जो जबाब दिया वह सुनने लायक है। उसने कहा बादशाह, “मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशाह (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है। इसीलिए यह फर्क है।” अतः भजन सामने बैठी जनता की प्रसन्नता के लिए नहीं गाना चाहिए। अगर आपको हनुमान जी से लो लगाना है तो आप को पवित्र होकर हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भजन गाना चाहिए।

इसके बाद इस चौपाई के आखरी कुछ शब्द हैं “जनम जनम के दुख विसरावें” जन्म जन्म को पुनर्जन्म भी कहते हैं। पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है जिसमें जीवात्मा के वर्तमान शरीर के समाप्त होने के बाद उसके पुनः जन्म लेने की बात की जाती है। इसमें मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण, गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है, परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। 84 लाख या 84 लाख प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है; फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। इन ग्रंथों में ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।

श्रीमद्भगवद्गीता के कर्म योग में भगवान श्री कृष्ण भगवान ने पूर्व जन्म के संबंध में विस्तृत विवेचना की है। कर्म योग का ज्ञान देते समय भगवान श्री कृष्ण ने, अर्जुन से कहा, “तुमसे पहले यह ज्ञान मैंने सृष्टि के प्रारंभ में केवल सूर्य को दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूं।” अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा कि आपका जन्म अभी कुछ वर्ष पहले हुआ है। सूर्य देव तो सृष्टि के प्रारंभ से हैं। आप उस समय जब पैदा ही नहीं हुए थे तो सूर्य देव को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं। कृष्ण ने कहा कि, ‘तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा-

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥५॥

अर्थात- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप! तू (उन्हें) नहीं जानता।

गीता का यह श्लोक तो निश्चित रूप से आप सभी को मालूम ही होगा-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
(श्रीभगवद्गीता 2.22)

जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।
अब हम इस जन्म में जो कुछ भोग रहे हैं वह केवल आपकी इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं है। आत्मा ने जो पिछले जन्म में कर्म किए हैं उनकी फल भी इस जन्म में भी आत्मा को प्राप्त होते हैं। हम यह देखते हैं कि कुछ लोग अत्यंत निंदनीय कार्य करते हैं, परंतु उनको फल बहुत अच्छे अच्छे मिलते हैं। इसका क्या कारण है। ज्योतिष में इसको राजयोग बोला जाता है। यह भी देखा गया है किसी व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह कई कॉलेजों के गवर्निंग बॉडी में चेयरमैन। जिस को विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं है वह विज्ञान के संस्थानों का नियंत्रक होता है। यह क्या है? इसी को पूर्व जन्म का का फल कहते हैं।

अब अगर आप यह चाहते हैं कि पूर्व जन्मों मैं आप द्वारा किए गए कुकर्मों का फल आपको इस जन्म में ना मिले तो आपको शुद्ध चित्त से महावीर दयालु हनुमान जी का भजन करना होगा। इस भजन के लिए आपके कंठ का बहुत अच्छा होना आवश्यक नहीं है। भाषा का अद्भुत ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है तो सिर्फ यह कि आप पूरे एकाग्र होकर मन वचन ध्यान से हनुमान जी का भजन गाएं। हनुमान जी और राम जी की कृपा आप पर हो और पूर्व जन्म के पाप से आप बच सके।

अगली लाइन में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

“अन्त काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥”

यह लाइन पूरी तरह से इसके पहले की लाइन तुम्हारे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख विसरावें” से जुड़ी हुई है। अगर कोई व्यक्ति एकाग्र होकर मन क्रम वचन से हनुमान जी की आराधना करेगा तो उस व्यक्ति के जनम जनम के दुख समाप्त हो जाएंगे। इसके ही आगे हैं की अंत में वह रघुवर पुर में पहुंचेगा, वहां उसको हरि का भक्त कहा जाएगा। इस प्रकार मानव का मुख्य कार्य हनुमान जी का एकाग्र होकर भजन करना है। तभी उसके दुख समाप्त होंगे। जन्मों का बंधन समाप्त होगा। अंत काल में रघुवरपुर पहुंचेंगा और वहां पर उनको हरि भक्त का दर्जा मिलेगा। यहां पर समझने लायक बात यह है रघुवरपुर और हरिभक्त का पद क्या है।

अक्सर लोग इस बात को कहते हैं कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि मुझे ऊपर जाकर जवाब देना होगा। ऊपर जाकर जवाब देने वाली बात क्या है? हिंदू धर्म के अनुसार तो आप जो भी गलत या सही करते हैं उसका पूरा हिसाब होता है। आपकी आत्मा जब यमलोक पहुंचती है तो वहां पर आपके कर्मों का हिसाब किताब होता है। मृत्यु के 13 दिन के उपरांत आप पुनः कोई दूसरा शरीर पाते हैं या हरिपद मिलता है। आप के जितने अच्छे काम या खराब काम होते हैं उसके हिसाब से आपको पृथ्वी पर नए शरीर में प्रवेश मिलता है। अगर आपके कार्य अत्यधिक अच्छे हैं, जैसा कि पुराने ऋषि मुनियों का है, तो आपको गोलोक या रघुवरपुर में हरिपद मिलेगा। हमारे यहां ऊपर जाकर आपको जवाब नहीं देना है। रघुवर पुर को तुलसीदास जी ने स्पष्ट नहीं किया है। रघुवर पुर बैकुंठ लोक को भी कहा जा सकता और अयोध्या को भी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने बैकुंठ और अयोध्या जी दोनों को प्रतिष्ठित माना है।

रामचरितमानस में अयोध्या जी का वर्णन करते हुए कहा गया है-

बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना, वेद-पुराण विदित जग जाना॥

इस प्रकार अयोध्या जी को वैकुंठ से श्रेष्ठ कहा गया है। अगले स्थान पर अयोध्या जी में रहने वालों को भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।
अति प्रिय मोहि इहां के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी॥

भगवान श्रीराम भी कहते हैं कि अवधपुरी के समान मुझे अन्य कोई भी नगरी प्रिय नहीं है। यहां के वासी मुझे अति प्रिय हैं। इस प्रकार रामचंद्र जी ने अयोध्या जी को बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बताया है। अतः राम भक्तों के लिए मृत्यु के बाद अयोध्या में वापस जन्म लेना और हरि भक्त कहलाना सबसे बड़ा वरदान है।

इस प्रकार यह सब कुछ आप पर निर्भर है। आप इस जन्म में कितनी एकाग्रता के साथ मन क्रम वचन से हनुमान जी की विनती करते हैं, उनका भजन करते हैं, उनका पूजन करते हैं। उसी हिसाब से आपका अगला जन्म निर्धारित होगा।

जय श्री राम
जय हनुमान