हमारे हनुमान जी विवेचना भाग सोलह: चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा

पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥

अर्थ
हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं। जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है, जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती। हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारो युगों फैला हुआ है। जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

भावार्थ
मनोरथ का अर्थ होता है “मन की इच्छा”। यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है। अगर हम हनुमान जी के पास, मन की अच्छी इच्छाओं को लेकर जाएंगे तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं। हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं। चारों युग अर्थात सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलयुग में परमवीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है। हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है। उनकी कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।

संदेश
हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है।

इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ-

1-और मनोरथ जो कोई लावै। सोई अमित जीवन फल पावै॥
2- चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥

इन चौपाईयों के बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और उसकी कीर्ति हर तरफ फैलेगी।

विवेचना
ऊपर हमने पहली और दूसरी लाइन का सीधा-साधा अर्थ बताया है। मनोरथ का अर्थ होता है इच्छा। परंतु किस की इच्छा। मनोरथ का अर्थ केवल मन की इच्छा नहीं है। अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की “मन के संकल्प” को मनोरथ कहते हैं। हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है। हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने दुश्मन का विध्वंस कर दें। भले ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों, परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे। हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा जाएगी। दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो। हमें सही मार्ग पर लाओ। हमें कुमार्ग से हटाओ। इस संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी। ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे। इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं “मन क्रम वचन ध्यान जो लावे”। हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी। आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है। मानवगत बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है, दिल नहीं। दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें। आपको समय समय पर भोजन मिले। भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े।

मनुष्य के मन का मनुष्य के जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है। मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं। मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था। इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति खड़े होने लायक नहीं रह गई । मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया। हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था। मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा, एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है। लिगामेंट टूटे होंगे। यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक कर डर बैठ गया था, वह समाप्त हो गया और मैं लड़के का सहारा लेकर चलकर अपनी गाड़ी तक गया। यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था, जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा। एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं। एक दिन मैं अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था। कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर के मेरे मित्र के पास तक आए। उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है। मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया। इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है। मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो करके गैस का दर्द है। जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग वार को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए। यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे। एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है। इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है। ऐसा होने पर भी, भौतिक जीवन जीने वाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं। शरीर के अंदर यह मन क्या है? यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है, यह किसी को नहीं मालूम। आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती। मन कभी गलत निर्णय नहीं करता। मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही और उपयुक्त होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि-

काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत॥

विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।

इस प्रकार तुलसीदास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह निश्चित हो जाता है कि आप मन की बात सुनते हो।

ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम क्रोध मद लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र ( मन, क्रम, वचन से ) होकर याद कर उनसे मांगेंगे तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा। परंतु यह जीवन फल क्या है। इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है-

सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।
मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।

अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है। परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है। जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है। आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी। आपको किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि से है।

एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे तो सर्वज्ञ हैं। उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है। वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर को की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया, परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी। अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया। कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए। शिकार खेलते खेलते वे अकेले पड़ गए। आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया। ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे। अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया। बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई। अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया। निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है। इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है। अतः अब इसकी बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है। फिर अकबर को छोड़ दिया गया। राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था। अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता।

भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है। अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए हितवर्धक हो। उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था। डॉक्टर बनना चाहता था। पीएमटी का टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका। वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया। गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के पढ़ना प्रारंभ किया। आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया। एनआईटी में सिलेक्शन हो गया। शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया। आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई। तब उसने देखा कि उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था, वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं। तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी।
निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर, मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें, उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमिट होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा, हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।

हनुमान चालीसा की अगली चौपाई “चारों युग परताप तुम्हारा, है प्रसिद्ध जगत उजियारा” अपने आप में पूर्णतया स्पष्ट है। यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है। यह चार युग हैं सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग। यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है। हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में हुआ है। फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं। इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए। इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए।

हनुमान जी चिरंजीव है। उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है-

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान॥”

हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का अख्यान पूरा होता है। परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं। इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है। आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं।

ब्रह्मा जी की उम्र 100 ब्रह्मा वर्ष के बराबर है। अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प के पहले मन्वंतर जिसका नाम स्वायम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे। एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है। इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग आएगा। अतः पहले त्रेता युग में हनुमान जी अवतरित हुए होंगे। उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे।

चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है। इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो सभी मानव रूप नहीं थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे। इस काल में स्वर्णमय व्यवहारपात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अति दीर्घ आयु वाले होते थे।

उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमानजी नहीं थे। उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं। परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।

आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं-

जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:। श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य……….. क्षेत्रे………. मण्डलान्तरगते……… नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः………. (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः…….. संख्या-परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि-संवत्सराणां मध्ये……….. नामसंवत्सरे………… अयने………… ऋतौ……….. मासे, ………… पक्षे………. तिथौ……….. वासरे……….. नक्षत्रे………..योगे…………करणे……….. राशिस्थिते चन्द्रे………… राशिस्थितेश्रीसूर्ये………देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ……..गोत्रोत्पन्नस्य……..शर्मण: (वर्मण:, गुप्तस्य वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिः वृद्धयर्थं।

संकल्प में पहला शब्द द्वितीये परार्धे आया है। श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है, जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है। एक दिन एक कल्प कहलाता है। यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है। यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है। दो मन्वन्तर के बीच के काल का परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है। इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।

हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है, इसका दोगुना द्वापर युग, 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है। इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है। 71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं, जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ। प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है, 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे, अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा। वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।

अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर चल रहा है। पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छह मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है।

हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है, जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं। एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है, इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे। इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं। 28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 )=3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं (1969056000+3888000) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं। अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है। इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।

ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है। जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आया था । इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी। हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी। अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है। विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है, जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है।

ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है। एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है। इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा, राजा, राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है। यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है। जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी। उसका यश हमेशा रहेगा। एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है। सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है। एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है। कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी, आज अंबानी और अदानी की है, परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है। वह कभी समाप्त नहीं होती है। इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि। इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है।

हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं, उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है। एक भजन है-

जिनके हृदय श्री राम बसे,
उन और को नाम लियो ना लियो।

एक दूसरा भजन भी है-

जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा
इस दुनिया को करके किनारा
राम जी की रजा में जो रजामंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है

अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है-

ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय
विश्वरूपाय अमित विक्रमाय
प्रकटपराक्रमाय महाबलाय
सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।

इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है। हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई नहीं कर सकता है। करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है।

कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥
(वा रा /युद्ध कांड/1./2)

और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है। यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया।

एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥
(वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)

इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥
(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)

इस प्रकार भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया। रुद्रावतार, पवन पुत्र, केसरी नंदन, अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा सदैव फैलती रहेगी। उनके प्रकाश से यह जग प्रकाशित होता रहेगा।

जय श्री राम
जय हनुमान