Thursday, March 28, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग ग्यारह: दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

अर्थ
हे हनुमान जी आपने बाल्यावस्था में ही हजारों योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था। आप भगवान राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर विशाल समुद्र को लाँघ गए थे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। संसार में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।

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भावार्थ
इन चौपाइयों में हनुमान जी की शक्ति के बारे में बताया गया है। सबसे पहले यह बताया गया है कि जन्म के कुछ दिन बाद ही हनुमान जी ने 1000 युग-योजन की दूरी पर स्थित सूर्य देव को मीठा फल समझकर खा लिया था। हनुमान जी को समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। उनके ह्रदय में प्रभु विराजमान हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रभु की मुद्रिका को मुंह में रखकर उन्होंने समुद्र को पार कर लिया था। दुनिया में जितने भी दुर्गम कार्य हैं, जो दूसरों के लिए कठिन हैं प्रभु श्रीराम तथा हनुमान जी की कृपा से आसान हो जाते हैं।

संदेश
श्री हनुमान जी जैसी दृढ़ता सभी के अंदर होनी चाहिए। अगर आपके अंदर इतनी दृढ़ता होगी तब ही सूर्य को निगलने अर्थात कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता आपके अंदर आ पाएगी। मन में अगर किसी कार्य को करने का भाव हो तो वह कितना ही मुश्किल हो, पूरा हो ही जाता है।

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इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ-
1-जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
2-प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
3-दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों से सूर्य कृपा, विद्या, ज्ञान और प्रतिष्ठा मिलती है। दूसरी और तीसरी चौपाई के बार-बार वाचन से महान से महान संकट से मुक्ति मिलती है और सभी समस्याओं का अंत होता है।

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विवेचना
पहली दो चौपाइयों में हनुमान जी के बलशाली और कार्य कुशल होने के बारे में बताया गया है। तीसरी चौपाई में यह कहा गया है कि इस जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं वे सभी भी आपके लिए अत्यंत आसान हैं। इस प्रकार उदाहरण दे कर के हनुमान जी को सभी कार्यों के करने योग्य बताया गया है। संकटमोचन हनुमान अष्टक में कहा भी गया है-

कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो। (संकटमोचन हनुमान अष्टक)

इसका भी अर्थ यही है की है हनुमान जी आप समस्त कार्यों को करने में समर्थ हैं। ईश्वर की जिस पर कृपा होती है वो सभी कार्यों को करने में समर्थ रहता है। भगवान श्री राम की कृपा हमारे बजरंगबली पर थी। इसलिए हमारे बजरंगबली सभी कार्यों को करने में समर्थ है।

मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥

कुछ इसी तरह का श्रीरामचरितमानस के बालकांड में भी लिखा हुआ है-
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।
(रामचरितमानस/बालकांड/सोरठा क्रमांक 2)

रामचंद्र जी की कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है। कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥

अब हम इस विवेचना की पहली चौपाई या यूं कहें तो हनुमान चालीसा के अट्ठारहवीं चौपाई पर आते हैं। चौपाई है-
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

यहां पर सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य लोक से पृथ्वी की दूरी के बारे में बताया है। उनका कहना है कि सूर्य से पृथ्वी एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी विश्व में सबसे पहले बाराहमिहीर नामक भारतीय वैज्ञानिक ने बताई थी। यह खोज उनके द्वारा 505 ईसवी में की गई थी। उन्होंने अपनी किताब सूर्य सिद्धांत में यह दूरी बताई है। वर्तमान में यह मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है, परंतु उसको अन्य विद्वानों ने 800 ईसवी तक लिखा है।

वराहमिहिर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा।

हनुमान चालीसा में दिए गए सूर्य की दूरी का अर्थ निम्नवत है-
सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी) bbc.com के अनुसार सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है।

इस घटना का उल्लेख संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी मिलता है। संकटमोचन हनुमान अष्टक का पाठ बजरंगबली के भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें लिखा है-

बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहूँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ॥1॥

हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगल जाने की घटना को हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 23 और 24 पर दिया गया है। इस ग्रंथ में लिखा है कि माता अंजना अपने प्रिय पुत्र हनुमान जी का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग पूर्वक करती थी। एक बार की बात है कि वानर राज केसरी और माता अंजना दोनों ही राजमहल में नहीं थे। बालक हनुमान पालने में झूल रहे थे। इसी बीच उनको भूख लगी और उनकी दृष्टि प्राची के क्षितिज पर गई। अरुणोदय हो रहा था। उन्होंने सूर्यदेव को लाल रंग का फल समझा। बालक हनुमान, शंकर भगवान के 11 वें रुद्र के अवतार थे। रुद्रावतार होने के कारण उनके में अकूत बल था। वे पवन देव के पुत्र थे, अतः उनको पवनदेव ने पहले ही उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी थी। हनुमान जी ने छलांग लगाई और अत्यंत वेग से आकाश में उड़ने लगे। पवन पुत्र रुद्रावतार हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए चले जा रहे थे। पवन देव ने जब यह दृश्य देखा तो हनुमान जी की रक्षा हेतु पीछे-पीछे चल दिए। हवा के झोंकों से पवन देव हनुमान जी को शीतलता प्रदान कर रहे थे। दूसरी तरफ जब सूर्य भगवान ने देखा की पवनपुत्र उनकी तरफ आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपने को शीतल कर लिया। हनुमान जी सूर्य देव के पास पहुंचे और वहां पर सूर्य देव के साथ क्रीड़ा करने लगे।

उस दिन ग्रहण का दिन था। राहु सूर्य देव को अपना ग्रास बनाने के लिए पहुंचा। उसने पाया कि भुवन भास्कर के रथ पर भुवन भास्कर के साथ एक बालक बैठा हुआ है। राहु बालक की चिंता ना कर सूर्य भगवान को ग्रास करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि हनुमान जी ने उसे पकड़ लिया। बालक हनुमान की मुट्ठी में राहु दबने लगा। वह किसी तरह से अपने प्राण बचाकर भागा। उन्होंने इस बात की शिकायत इंद्रदेव जी की से की। इंद्रदेव ने नाराज होकर हनुमान जी के ऊपर बज्र का प्रहार किया जो हनुमान जी की बाईं ढोड़ी पर लगा। जिससे उनकी हनु टूट गयी। इस चोट के कारण हनुमान जी मूर्छित हो गए। हनुमान जी को मूर्छित देख वायुदेव अत्यंत कुपित हो गए। वे अपने पुत्र को अंक में लेकर पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए।
वायु देव के बंद होने से सभी जीवधारियों के प्राण संकट में पड़ गए। सभी देवता गंधर्व नाग आदि जीवन रक्षा के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी सब को लेकर वायुदेव जिस गुफा में थे उस गुफा पर पहुंचे। ब्रह्मा जी ने प्यार के साथ हनुमान जी को स्पर्श किया और हनुमान जी की मुर्छा टूट गई। अपने पुत्र को जीवित देख कर के पवन देव पहले की तरह से प्राणवायु को बहाने लगे। इस समय सभी देवता उपस्थित थे। सभी ने अपनी अपनी तरफ से हनुमान जी को वर दिया। जैसे कि ब्रह्मा जी ने कहा कि उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र का असर नहीं होगा। इंद्रदेव ने कहा कि हनुमान जी के ऊपर उनके वज्र का असर नहीं होगा आदि, आदि। इस प्रकार ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवताओं ने मिलकर हनुमान जी को बहुत सारे आशीर्वाद एवं वरदान दिए।

वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। किष्किंधा कांड के 66वें सर्ग समुद्र पार करने के लिए जामवंत जी हनुमान जी को उत्साहित करते हैं। इस उत्साह बढ़ाने के दौरान वे हनुमान जी द्वारा सूर्य को सूर्य लोक में जाने की बात को बताते हैं।

तावदापपत स्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन धीमता।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।
ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते।।
(वा रा /कि का/66/.23 )

अर्थ- एक दिन प्रातः काल के समय सूर्य भगवान को उदय हुआ देख तुमने उन्हें कोई फल समझा। उस फल को लेने की इच्छा से तुम कूदकर आकाश में पहुंचे और 300 योजन ऊपर चले गए। वहां सूर्य की किरणों के ताप से भी तुम नहीं घबराए। हे ! महाकपि उस समय तुम को आकाश में जाते देख इंद्र ने क्रोध कर तुम्हारे ऊपर बज्र मारा। तब तुम पर्वत के शिखर पर आकर गिरे। तुम्हारी बायीं और की ठोड़ी टूट गई। इसके बाद का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी वैसा ही है जैसा कि हनुमत पुराण में है। इस वर्णन को हम आपको बता चुके हैं।

अर्थात वाल्मीकि रामायण से यह प्रतीत होता है हनुमान जी पृथ्वी से 300 योजन ऊपर तक पहुंच गए थे। वहां पर इंद्र ने उनके ऊपर बज्र प्रहार किया। ऐसा प्रतीत होता है इंद्रदेव की प्रवृत्ति अमेरिका जैसी ही थी जिस तरह से अमेरिका किसी दूसरे देश को आगे नहीं बढ़ने देता है, वैसे ही इंद्रदेव ने बालक हनुमान को सूर्य तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे। परंतु इस समय पवन देव ने अपनी शक्ति दिखाई। जिसके कारण भगवान ब्रह्मा ने बीच-बचाव कर शांति की प्रक्रिया को स्थापित किया।

अब हम चर्चा करेंगे वर्तमान समय के बुद्धिमान लोग इस घटना के बारे में क्या कहते हैं और उसका उत्तर क्या है।

वर्तमान समय के अति बुद्धिमान प्राणी कहते हैं पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी पृथ्वी से बड़ा नहीं हो सकता है अतः यह कैसे संभव है कि पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी सूर्य को अपने मुंह में कैद कर ले। इसका उत्तर हनुमत पुराण में अत्यंत स्पष्ट रूप से है। हनुमत पुराण पढ़ने से यह प्रतीत होता है हनुमान जी ने बाल अवस्था में ही पवन और सूर्य देव की सहायता से सूर्यलोक पर कब्जा कर लिया था। भगवान सूर्य के साथ जो उस समय सूर्यलोक के स्वामी थे मित्रवत व्यवहार बना लिया था। यह बात राहु और इंद्र को बुरी लगी। इंद्र के पास अति भयानक अस्त्र था जिसे वज्र कहते हैं। उससे उन्होंने हनुमान जी पर आक्रमण किया । इस आक्रमण को हनुमान जी बर्दाश्त नहीं कर सके। हनुमान जी के पिता पवन देव ने फिर अपने बल का इस्तेमाल कर पूरे ब्रह्मांड को विवश कर दिया कि वह हनुमान जी के सामने नतमस्तक हो। ब्रह्मांड के सभी बड़े देवता आये और उन्होंने अपनी अपनी तरफ से वरदान दिया। जैसे भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने अपने हथियार ब्रह्मास्त्र और वज्र का उन पर असर ना होने का वरदान दिया। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने हनुमान जी के ऊपर कभी भी ब्रह्मास्त्र और वज्र को का इस्तेमाल न करने का आश्वासन दिया।

रामचरितमानस काव्य है, काव्य में कवि अपनी भाषा-शैली के अनुसार विभिन्न अलंकार आदि का प्रयोग करते हैं। रामचरितमानस में भी इन सब का प्रयोग किया गया है। बाल्मीकि रामायण उस समय का ग्रंथ है, जिस समय रामचंद्र जी अयोध्या में पैदा हुए तथा राज किया। इस प्रकार हम बाल्मीकि रामायण को शत प्रतिशत सही मान सकते हैं।

श्री हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है-

“प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥”

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी ने प्रभु द्वारा दी गई मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया और समुद्र को पार कर गए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब प्रश्न उठता है कि महावीर हनुमान जी ने लंका जाते समय मुद्रिका को अपने मुंह में क्यों रखा। मुद्रिका उनके पास पहले जिस स्थान पर थी उसी स्थान पर क्यों नहीं रहने दिया। आइए हम इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करते हैं।

हनुमत पुराण के पेज क्रमांक 73 पर लिखा हुआ है कि सीता जी की खोज के लिए निकलते समय श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा “वीरवर तुम्हारा उद्योग, धैर्य एवं पराक्रम और सुग्रीव का संदेश इन सब बातों से लगता है कि निश्चय ही तुमसे मेरे कार्य की सिद्धि होगी। तुम मेरी यह अंगूठी ले जाओ। इस पर मेरे नामाक्षर खुदे हुए हैं। इसे अपने परिचय के लिए तुम एकांत में सीता को देना। कपिश्रेष्ठ इस कार्य में तुम ही समर्थ हो। मैं तुम्हारा बुद्धिबल अच्छी तरह से जानता हूं। अच्छा जाओ तुम्हारा कल्याण हो। इसके उपरांत पवन कुमार ने प्रभु की मुद्रिका अत्यंत आदरपूर्वक अपने पास रख ली और उनके चरण कमलों में अपना मस्तक रख दिया। इसका अर्थ स्पष्ट है कि महावीर हनुमान जी के पास उस अंगूठी को रखने के लिए मुंह के अलावा कोई और स्थान भी हो सकता है। हो सकता है कि उन्होंने अपने वस्त्र में उस अंगूठी को बांध लिया हो।

रामचरितमानस में भी यह प्रसंग किष्किंधा कांड में मिलता है। किष्किंधा कांड के 22वें दोहे के बाद एक से सात चौपाई तक इस बात का वर्णन है।

पाछें पवन तनय सिरु नावा।
जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी।
करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना।
चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥

भावार्थ- सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्‌जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी और कहा कि बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्‌जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चल दिए ॥6॥

बाल्मीकि बाल्मीकि रामायण में भी इस घटना को ज्यों का त्यों लिखा गया है। यह घटना वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड के 44वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 12, 13, 14 एवं 15 में वर्णित है-

ददौ तस्य ततः प्रीतस्स्वनामाङ्कोपशोभितम्।
अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परन्तपः।।
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नाऽनुपश्यति।।
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।
सुग्रीवस्य च सन्देशस्सिद्धिं कथयतीव मे।।
स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः।।
(वा रा/ कि का/44./12, 13, 14, 15)

यहां भी वर्णन बिल्कुल रामचरितमानस जैसा ही है। पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है कि वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अंगूठी को माथे पर चढ़ाया। श्री रामचंद्र जी के चरणों को हाथ जोड़कर प्रणाम करके महावीर हनुमान जी चल दिए। तीनों ग्रंथों में कहीं पर यह नहीं लिखा है की हनुमानजी ने श्री रामचंद्र जी से अंगूठी लेने के उपरांत उसको कहां पर रखा। यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंगूठी को अपने पास रखा अर्थात अपने वस्त्रों में उसको सुरक्षित किया।

हनुमान जी जब समुद्र को पार करने लगे तो सभी ग्रंथों में यह लिखा है कि उन्होंने वायु मार्ग से समुद्र को पार किया हनुमान जी के पास इस बात की शक्ति थी कि वह हवाई मार्ग से गमन कर सकते थे। जब वे बाल काल में धरती से सूर्य तक की दूरी उड़ कर जा सकते थे तो समुद्र के किनारे से लंका तक जाने की दूरी तो अत्यंत कम ही थी। इतनी लंबी उड़ान उस समय धरती पर लंकापति रावण, पक्षीराज जटायु और संपाती ही कर सकते थे। वायु मार्ग से उड़ते समय इस बात का डर था की वायु के घर्षण के कारण अंगूठी वस्त्रों से निकल सकती है। अंगूठी को बचाने के लिए उन्होंने सबसे सुरक्षित स्थान अपने मुख में अंगूठी को रख लिया। हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से उस अंगूठी को निकालकर मुंह में सिर्फ सुरक्षा के कारणों से रखा था।

हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियां प्राप्त थी। इन आठ सिद्धियों के नाम है- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशीता, वशीकरण। उपरोक्त शक्ति में से लघिमा ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से उड़ा जा सकता है। हनुमानजी महिमा और लघिमा शक्ति के बल पर समुद्र पार कर गए थे।

विमान को संचालित करने के लिए गुरुत्वाकर्षण विरोधी (anti-gravitational) शक्ति की आवश्यकता होती है और ‘लघिमा’ की (anti-gravitational) शक्ति प्रणाली अनुरूप होती है। लघिमा (laghima) को संस्कृत में लघिमा सिद्धि कहते हैं और इंग्लिश में इसे लेविटेशन (levitation) कहा जाता है। लघिमा योग के अनुसार आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि है।

दैनिक भास्कर के डिजिटल एडिशन में आज से 8 वर्ष पुराना एक लेख है। जिसमें बताया गया है कि वाराणसी के चौका घाट पर मुछों वाले हनुमान जी का मंदिर है। इस मंदिर के बनने की कहानी भी हनुमान जी के शक्ति को बयान करती है। 18 वीं शताब्दी में वाराणसी का डीएम हेनरी नाम का अंग्रेज था। वाराणसी के वरुणा नदी के किनारे रामलीला होती थी। हेनरी वहां पहुंचा। उसने रामलीला को बंद कराने का प्रयास किया। जिसका कि वहां के निवासियों ने विरोध किया। हेनरी ने चैलेंज किया कि आप लोग कहते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को छलांग लगाकर पार कर लिया था। अगर आपका हनुमान इस नदी को छलांग लगाकर पार कर ले तो मैं मान लूंगा यह रामलीला का उत्सव सही है। लोगों ने इस तरह का टेस्ट ना लेने की बात की परंतु वह टेस्ट लेने पर अड़ा रहा। हनुमान बने पात्र को आखिर कूदना पड़ा। कूदने के लिए जब उन्होंने श्री रामचंद्र जी बने पात्र से आज्ञा मांगी तो उन्होंने कहा ठीक है। तुम कूद करके नदी पार कर लो। परंतु पीछे मुड़कर मत देखना। हनुमान बने पात्र ने नदी कूदने का प्रयास किया। परंतु जब दूसरी तरफ पहुंच गया तो उसने पीछे मुड़कर देख लिया और वही पत्थर की तरह से जम गया। आज उस स्थान पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है।

महाबली हनुमान जी धरती से सूर्यलोक तक जाने के लिए समर्थ है। अतः यह सोचना कि समुद्र के किनारे से लंका तक समुद्र को पार करके नहीं जा सकते हैं, मूर्खता की पराकाष्ठा होगी। अतः उनका समुद्र को पार करके जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है।

हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है-

“दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥”

इसका शाब्दिक अर्थ दो तरह से कहा जा सकता है। पहला अर्थ है जगत के बाकी लोगों के लिए जो कार्य दुर्गम होते हैं, आपके लिए अत्यंत आसान होते हैं। इसका दूसरा अर्थ भी है संसार के दुर्गम कार्य भी आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं। मुझे दूसरा अर्थ ज्यादा सही लग रहा है। अगर हनुमान जी की आप पर कृपा है तो आप मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसानी से कर सकते हैं। जैसे कि अभी ऊपर रामलीला के प्रसंग में मैंने बताया कि रामलीला के एक साधारण से पात्र पर जब हनुमान जी की कृपा हो गई तो उसने वरुणा नदी को पार कर लिया। आपकी कृपा जिस व्यक्ति पर है वह किसी भी कार्य को बगैर किसी परेशानी के आराम से कर सकता है। चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि कोई भी कार्य को करने के लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा। चाहे वह काम आसान हो और चाहे कठिन, परंतु केवल प्रयास करने से कार्य नहीं हो जाएगा। काम होने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है। अगर हनुमान जी की कृपा आप पर है तो कार्य को होने से कोई भी रोक नहीं सकता है। अगर आप इस घमंड में हैं कि आप बहुत शक्तिशाली हैं, आपका रसूख समाज में बहुत ज्यादा है और आप किसी भी कार्य को करने में समर्थ हैं तो यह आपकी भूल है। हो सकता है आप कार्य करने को आगे बढ़े और जहां आपको कार्य करना है उस जगह तक जाने का संसाधन ही आपको ना मिल पाए। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें विद्यार्थी को सब कुछ आ रहा होता है, परंतु भ्रमवश वह पास होने लायक प्रश्न भी हल नहीं कर पाता है।

एक लड़का था। मान लेते हैं कि लड़के का नाम विजय था। देश के प्रमुख 10 इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक से उसने बीई की परीक्षा दी और अपने गांव चला गया। गांव पर ही उसको अपने एक साथी का पत्र मिला जिसमें उसने बताया था कि 16 तारीख तक एक अच्छे संस्थान में ग्रैजुएट ट्रेनी के लिए वैकेंसी आई है। यह पत्र उसको 13 तारीख को प्राप्त हुआ था। विजय ने यह मानते हुए की अब अगर लिखित परीक्षा का फार्म आ भी जाए तो कोई फायदा नहीं है। लिखित परीक्षा के फार्म हेतु उसने आवेदन दे दिया। लिखित परीक्षा का आवेदन फार्म 20 तारीख के आसपास आ गया। उसके साथ यह भी लिखा था कि इस फॉर्म को आप 30 तारीख तक भर सकते हैं। विजय ने तत्काल फार्म भरा और भेजा। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के उपरांत प्रथम नंबर पर आया और हनुमान जी की कृपा से ही अंत में विजय को उस संस्थान के उच्चतम पद पर पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं यह भी कहना चाहता हूं यह कहानी बिल्कुल सच्ची है संभवत आप लोगों के आसपास भी ऐसी कई घटनाएं घटित हुई होंगी।

अगर आपके पेट में खाना पच जाता है उसका शरीर में खून बनता है मांस बनता है और मांसपेशियां बनती है। आपके दिन भर का कार्य उस खाने पचने की वजह से हो जाता है। अगर यह खाना न पचे तो आप बीमार हो जाएंगे और किसी कार्य के काबिल नहीं रहेंगे। इसी प्रकार अगर आप की सफलताएं पच जाएं अर्थात आपको सफलताओं का अहंकार ना हो तो आप जिंदगी में आगे बढ़ते चले जाएंगे। अगर आप यह माने यह सब प्रभु की कृपा से हुआ है तो आपके अंदर अहंकार नहीं आएगा।

अगर आपको अपनी सफलता नहीं पचेगी तो आपके अंदर अहंकार आ जाएगा। किसी न किसी दिन यह अहंकार आपको जमीन पर ला देगा। उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है। लोग कहते हैं कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को प्रणाम करो।

कुछ लोग कह सकते हैं कि वृद्धों के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है। लडका एमबीबीएस की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ। इतना होने पर भी उसका बाप कहता है कि वृद्धों के आशीर्वाद से तू प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर। परंतु ऐसे लोग यह नहीं जानते हैं कि आपके अंदर सफलता का अहंकार ना आ जाए, इसलिए बड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा जा रहा है। जीवन में यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है, सफलताएं प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास का होना भी आवश्यक है। भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है। उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे। अगर हम हनुमान जी के शरणागत हो जाएं और प्रयास करें तो हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है।

अंत में-
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानों में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत हैं।

जय हनुमान

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