Saturday, April 27, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग नौ: जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

जम कुबेर दिगपाल जहां ते,

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

अर्थ

यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

भावार्थ

यह चौपाई श्री रामचंद्र जी द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा में कही गई है। उन्होंने कहा है कि यम अर्थात यमराज, जो हर व्यक्ति का लेखा जोखा रखते हैं, कुबेर अर्थात विश्व के सभी ऐश्वर्य के स्वामी, दसों दिगपाल अर्थात दसों दिशाओं के रक्षक देवता गण विश्व के सभी कवि सभी विद्वान सभी पंडित मिलकर भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते हैं।

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संदेश

अगर आप अच्छी इच्छा शक्ति और अच्छे इरादे के साथ कर्म करें तो आपकी प्रशंसा करने के लिए सभी बाध्य हो जाते हैं।

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-

जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से यश कीर्ति की वृद्धि होती है, मान सम्मान बढ़ता है।

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विवेचना

यह चौपाई “जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते” इसके पहले की चौपाई “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा” के साथ पढ़ी जानी चाहिए। इस चौपाई में भी श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की प्रशंसा की है। यम से यहां पर आशय यमराज से है जो कि मृत्यु के देवता है। इनके पिताजी भगवान सूर्य कहे जाते हैं और यमुना जी इनकी बहन है। इनके अन्य भाई बहनों के नाम शनिदेव, अश्वनीकुमार, भद्रा, वैवस्वत मनु, रेवंत, सुग्रीव, श्राद्धदेव मनु और कर्ण हैं। इनके एक पुत्र का नाम युधिष्ठिर है जो पांच पांडवों में से एक हैं। यमराज जी जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। वे परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक्पाल कहे जाते हैं। ये समस्त जीवो के अच्छे और बुरे कर्मों को बताते हैं। परंतु ये भी हनुमान जी द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को पूर्णरूपेण बताने में असफल हैं।

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कुबेर जी धन के देवता माने जाते हैं पूरे ब्रह्मांड का धन इनके पास है। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं। संसार के रक्षक लोकपाल भी हैं। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माता देववर्णिणी थीं। वे रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई हैं। धन के देवता कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी बताया जाता है। श्री कुबेर जी के पास ब्रह्मांड का पूरा धन होने के उपरांत भी वे हनुमान जी की कीर्ति की पूर्ण व्याख्या  करने में असमर्थ हैं।

सनातन धर्म के ग्रंथों में दिक्पालों का बड़ा महत्व है। सनातन धर्म के अनुसार 10 दिशाएं होती हैं और हर दिशा का की रक्षा करने के लिए एक दिग्पाल हैं। यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। दसों दिशाओं में होने वाली हर कार्यवाही की पर इनकी नजर होती है। परंतु श्री रामचंद्र जी के अनुसार ये भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं।

कहां जाता है कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि।  परंतु ये कवि गण भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। अगर हम हनुमान जी के हर एक गुण का अलग-अलग वर्णन करें तो भी हम हनुमान जी के समस्त गुणों को लेखनीबद्ध नहीं कर सकते हैं। जैसे कि उनके दूतकर्म के लिए वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के मुंह से कहा गया है-

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात- हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए, जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

सीता जी का पता लगाने के लिए जामवंत जी की कसौटी पर केवल हनुमान जी ही खरे उतरते हैं। देखिए जामवंत जी ने क्या कहा-

हनुमन् हरि राजस्य सुग्रीवस्य समो हि असि।

राम लक्ष्मणयोः च अपि तेजसा च बलेन च।।

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड-६६-३)

अर्थात हे हनुमान आप वीरता में वानरों के राजा सुग्रीव के समान हैं। आपकी वीरता स्वयं श्री राम और लक्ष्मण के बराबर है।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अवतरण का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है-

राम काज लगि तब अवतारा।

सुनतहिं भयउ परबतकारा।।

अर्थात- महावीर हनुमान जी का जन्म ही राम काज करने के लिए हुआ था। यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के बराबर हो गए।

जब हनुमान जी मां जानकी का पता लगाने के अलावा लंका को जला कर वापस लौटे।  उसके उपरांत सभी बंदर भालू श्री रामचंद्र जी के पास आए तब जामवंत जी ने हनुमान जी की प्रशंसा में श्री राम चंद्र जी से कहा:-

नाथ पवसुत कीन्हीं जो करनी।

सहसहुं मुख न जाई सो बरनी।।

पवनतनय के चरित सुहाए।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।।

श्रीरामचंद्र जी ने जब यह सुना कि हनुमान जी लंका जलाकर आए हैं, तब उन्होंने परमवीर हनुमान जी से घटना का पूरा विवरण जानना चाहा-

कहु कपि रावन पालित लंका।

केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

महावीर स्वामी महावीर हनुमान जी ने इसका बड़ा छोटा सा जवाब दिया प्रभु यह सब आपकी कृपा की वजह से हुआ है। यह विनयशीलता की पराकाष्ठा है।

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

बोला बचन बिगत हनुमाना।।

साखा मृग के बड़ी मनुसाई।

साखा ते साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न मोरी कछु प्रभुताई।

ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल।

तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकल खलु तूल।।

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

अर्थात- महावीर हनुमान जी अपने श्री राम को प्रसन्न देख कर अपने अभिमान और अहंकार का त्याग कर अपने कार्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बंदर की क्या विशेषता हो सकती है। वो तो एक पेड़ की शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता रहता है। इसी तरह से मैंने समुद्र पार किया और सोने की लंका जलाई। राक्षसों का वध किया और अशोक वाटिका उजाड़ दी।

हे प्रभु ये सब आपकी प्रभुता का कमाल है। मेरी इसमें कोई शक्ति नहीं है। आप जिस पर भी अनुकूल हो जाते हैं, उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता। आपके प्रभाव से तुरंत जल जाने वाली रुई भी एक बड़े जंगल को जला सकती है।

सूरदास जी ने सूरसागर के नवम स्कंद के 147 वें पद में लिखा है-

कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।

ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार।।

इतनी बिपति भरत सुनि पावैं आवैं साजि बरूथ।

कर गहि धनुष जगत कौं जीतैं, कितिक निसाचर जूथ।

नाहिं न और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।

को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?

इतनौ वचन स्त्र वन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात।

लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कैं स्त्रोनित न्हात।

अहो पुनीत मीत केसरि-सुत,तुम हित बंधु हमारे।

जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे!

जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे,तहँ-तहँ त्रास निवारे।

सूर सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा दुख टारै॥147॥

यह पद लक्ष्मण जी को शक्ति लगने के उपरांत की प्रकृति का वर्णन करता है। उस समय श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी ढूंढ़ने के बजाय पूरा पर्वत ही उठा कर ले आते हैं और श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचाते हैं।

हनुमान जी की सेवा के अधीन होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा-

कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।

देबेको न कछू रिनियाँ हौं, धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।

(विनय-पत्रिका पद १००।७)

‘भैया हनुमान! तुम्हें मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं; मैं तेरा ऋणी हूँ तथा तू मेरा धनी (साहूकार) है। बस इसी बात की तू मुझसे सनद लिखा ले।’

इसी प्रकार समय-समय पर हनुमान जी की प्रशंसा मां जानकी, भरत जी, लक्ष्मण जी, रावण एवं अन्य देवताओं ने की है। इस प्रकार हम देखते हैं जल्द कि हनुमान जी की प्रशंसा में हर किसी ने कुछ न कुछ कहा है, परंतु तब भी उनकी प्रशंसा पूर्ण नहीं हो पाई है। ऐसे हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे हमारी रक्षा करें।

जय हनुमान

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