वैश्विक महामारी कोविड-19 से बचने के लिए एकांतवास का तृतीय चरण आज से फिर आरंभ हो गया है। कुछ भय, कुछ पीड़ा, कुछ संतोष, कुछ मजबूरी, नाम चाहें हम कुछ भी दें पर, इस एकांतवास का पालन करना है यह महती आवश्यकता है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सारा विश्व एक परिवार है और इस विश्व परिवार मे हमारा देश भारतवर्ष एक परिपक्व लोकतंत्र और हम सब भारतीय एक मजबूत देश के नागरिक रुप मे उभरे हैं। यह भी सिध्द हो गया है कि जब भी हमारे देश और मानवता पर कोई संकट आता है तो हम सब एक हो जाते हैं और यही एकजुटता हमारे देश को ताकत प्रदान करती है। पर क्या हम जानते हैं कि हमें यह ताकत कहां से मिलती है? हम किसी भी विपरीत परिस्थितियों में अपने आप को कैसे ढाल लेते हैं? हमारे घर को हमारी मातृशक्तियां कैसे भारी भारी मुसीबतों से संभाल लेती हैं और हंसते हुए हम सब परिवार, राज्य और देश के साथ मुस्कुराते हुए अपना परचम फिर फहरा लेते हैं? मेरे विचार से इसका एक ही उपाय दिखता है, हमारे धर्म, हमारे संस्कार, हमारे धर्मग्रंथ जो हमें नियमबद्ध आचरण का पाठ पढाते हैं और इसकी ट्रेनिंग जब हम मां के गर्भ मे आते हैं तभी से शुरुआत हो जाती है। यहां पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या धर्म के पालन करने से सुख शांति मिलती है? मेरा उत्तर हां ही होगा, क्योंकि हमारे वेद पुराणों मे शरीर सहित मनोमस्तिष्क और आत्मा को स्वस्थ और सेहतमंद बनाए रखने के हजारों उपाय हैं। हमारी संस्कृति मे भी कुछ भी यूं ही नहीं है वरन् उसके पीछे विज्ञान है। इसीलिए परदादा, दादा, पिता और बेटा आज भी अपनी परंपराओं को मान रहे हैं। हां ये कह सकती हूं कि कुछ म्लेच्छों के प्रभाव मे आकर हमने उनकी संस्कृति के कुछ चीजों मे खुलकर अपनाने लगे थे पर आज, एकांतवास मे हमने अपनी संस्कृति, अपने संस्कार, को जान लिया है। अब देखिये न जिन चीजों को हम अपने से दूर कर रहे थे, आज वो हमारे सामने आकर खडी हैं और मुंह चिढा रही हैं। बहुत दिनों से हम प्रणाम करना भूल गए थे, हाथ मिलाने लगे थे। आज इस वैश्विक महामारी ने बाहरी लोगों को भी हाथ जोडना सिखा दिया है। घर के पौष्टिक भोजन को छोडकर हम होटलों के खाने की तरफ आकर्षित हो गए थे। आज देखिये हमारा भारतीय भोजन सभी रोगों से लडने मे सहायक है। तुलसी, हल्दी, दालचीनी और ऐसे अनेकों चीजें जिसे हम छोड दिए था आज हमारी दिनचर्या का अहम् हिस्सा बन गया है।
क्षणिक सुख की चाह मे हम अपनो से दूर हो गए थे आज कोरोना ने हमें परिवार के साथ बैठना सीखा दिया है। हमारे बच्चों के लिए आज पर्याप्त समय है और अगर दूर हैं तो इतनी सुविधाएं हैं हम रोज बातें कर रहे हैं और आज बातें राम कृष्ण की होती हैं। हमारी संस्कृति हमें लाभ हानि के जोड घटाव की मानसिकता से उपर उठाकर अपने परिवार और रिश्तों के लिए जीना सीखाती है। यह बातें आज रामायण देखकर पता चल रहा है। संतोष और सेवा का गुण जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है उसका हम पालन कर रहे हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह भाव आना ही हमें निश्चित ही एक ऐसे भाव की ओर ले जाता है जहां से हम स्वयं की चिंता को छोडकर दूसरे के विषय मे सोचते हैं अर्थात ‘मै’ से निकलकर ‘हम’ की भावना का विकास जो हम अभी सीखे हैं यानि एकांतवास अपने को निखारने के साथ साथ हमारी रचनात्मक खूबियों को उभार रहा है। चंद कागज के टुकड़े कमाने के फेर मे हम अपनी प्रतिभा, अपने परिवार और अपने स्वयं को भूल चुके थे जो इन दिनों मे पता चल रहा है।
अंत मे यही कहना चाहूंगी कि यह समय एक अनंंत विस्तार का समय है जिसे कैलेंडर की तारीखों और दिनों से परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसलिए गृहवास करें अविराम।
-डॉ सुनीता मिश्रा