किसी भी राष्ट्र को मजबूत बनाने के लिए उस देश के नागरिकों का सशक्त होना पहली आवश्यक शर्त होती है, क्योंकि कमजोर लोगों की सहायता से कोई भी देश विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता है। फिर विश्व का नेतृत्व करना तो बहुत दूर की कौड़ी साबित होगी।
भारत जिसके बारे में विश्व में विविधता में एकता की मिसाल पेश की जाती है और सदियों से भारत अपनी इस विशिष्ट पहचान को न केवल बनाए रखने में सफल साबित हुआ है, बल्कि उसे दिन प्रतिदिन मजबूत बनाता चला आ रहा है।
विविधता में एकता भारत की एक सांस्कृतिक पहचान है। जहां विभिन्न धर्म, जाति, भाषा, समुदाय, पहनावा, मत, परंपरा के लोग एक-दूसरे के साथ प्रेम एवं सद्भाव के साथ रहते आ रहे हैं और आशा है कि हम भारत के लोग जननी जन्मभूमि भारत मां की गोद में युग युगांतर तक ऐसे ही पुष्पित पल्लवित होते रहेंगे और भौतिक विकास की चकाचौंध में प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को कमजोर नहीं पड़ने देंगे।
देश के नागरिक होने के नाते हम अपनी ऐतिहासिक विरासतों, सांस्कृतिक धरोहरों, राष्ट्रीय प्रतीकों, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय गीत, महापुरुषों की मूर्तियों इत्यादि के साथ उन सभी प्रतीकों एवं भौतिक वस्तुओं जिनका संबंध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और इस देश की सभ्यता के साथ है, उन्हें हमेशा ईमानदारी एवं एकनिष्ठ भाव के साथ सहेजने का प्रयास करेंगे।
स्वतंत्रता हमें नागरिक अधिकारों के साथ देश के प्रति कुछ कर्तव्य भी सौंपती है और एक नागरिक के तौर पर हमें अपने इस कर्तव्य को बखूबी निभाना चाहिए तभी सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता की उपयोगिता साबित होगी। आजादी के 70 वर्षों से अधिक समय के बाद भी देश में ग़रीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारी, अशिक्षा इत्यादि मूल समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई है।
ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं को दूर करने का प्रयास नहीं किया गया, परन्तु एक सीमा तक यह बात उचित जान पड़ती है कि किसी भी सरकार द्वारा इन समस्याओं को समूल नष्ट करने का प्रयास नहीं किया गया जिसका आधा अधूरा परिणाम स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।
जीडीपी में तीव्र वृद्धि करने के उद्देश्य से उधोग एवं सेवाओं को लाभ पहुंचाकर हम किसान एवं श्रमिकों के हितों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते है क्योंकि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जिस आर्थिक न्याय की बात की गई है उसका तात्पर्य है कि राज्य समाज में आर्थिक असमानता को मिटाने का भरपूर प्रयास करेगा और आर्थिक आधार पर किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
आज के संदर्भ में आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय संविधान की परिसंघीय भावना के अनुरूप संघ एवं सभी राज्य सरकारें नागरिकों के साथ मिलकर मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए एवं दिखावे की राजनीतिक संस्कृति से बाहर आकर देश के नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि उन सभी क्षेत्रों में जिससे नागरिकों के साथ राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति हो, मजबूती प्रदान करें।
इसके लिए सरकार एवं समाज दोनों को एकता एवं समन्वय के साथ कार्य करना होगा। अनेक बार ऐसा देखा गया है कि देश के अंदर राष्ट्र विरोधी तत्व राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को चोट पहुंचाने का कार्य करते हैं। ऐसी विरोधी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने की आवश्यकता है।
इसके लिए केवल सरकार के भरोसे बैठे रहना उचित नहीं होगा बल्कि समाज में छुपे इन अराजक तत्वों को पहचानने एवं निकाल बाहर करने के लिए नागरिकों को मुखर होना पड़ेगा। आखिर में देश के विकास को ध्यान में रखते हुए सरकार को नेहरू जी के उस वाक्य को ध्यान में रखने की आवश्यकता है जो उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश को संबोधित करते हुए दोहराया था कि कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं।
मोहित कुमार उपाध्याय
भारतीय राजनीति, संविधान और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार