निस्संदेह यह बात सत्य हैं कि स्वयं को साम्यवादी कहकर इतराने वाला चीन विश्व समुदाय को वैश्विक महामारी का रूप लेने वाली कोविड- 19 नामक संक्रामक बीमारी के बारे में उचित समय पर सचेत करने में असफल रहा। इस बात का जिक्र लगातार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा विभिन्न वैश्विक मंचों पर किया जा रहा हैं। इस संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा चीन का पक्ष लिये जाने के कारण, निराशा प्रकट करते हुए, उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन के सभी सदस्य देशों में अमेरिका द्वारा सर्वाधिक भुगतान किये जाने वाले सहायता अनुदान पर रोक लगा दी।
विश्व के लगभग सभी देश इस महामारी का कारण चीन को मानते हैं और विश्व अर्थव्यवस्था को 1929 की वैश्विक महामंदी से भी बड़ी मंदी की ओर धकेलने के लिए उसे पूर्ण रूप से उत्तरदायी ठहरा रहे है। आज के इस आर्थिक संकट में वैश्विक जनमत चीन के विरुद्ध बना हुआ हैं और लगभग सभी देशों ने चीन पर अपनी निर्भरता कम करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट को चीन से समेटना शुरू कर दिया है, भविष्य में जिसका लाभ भारत को मिलने की संभावना है।
चीन विश्व समुदाय का ध्यान इस मुद्दे से भटकाने के लिए पूर्व की भांति अपनी विस्तारवादी नीति में संलग्न है। हाल ही में पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा में स्थित गलवान घाटी पर अतिक्रमण को लेकर भारत और चीन की सेनाओं के बीच हुई गंभीर हिंसक झड़प चीन की इसी विस्तारवादी नीति का ही परिणाम है।
भारतीय सेना की ओर से गलवान घाटी में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ हुई झड़प में 20 जवानों के शहीद होने की पुष्टि की है। दूसरी ओर सूत्रों के अनुसार चीनी पक्ष के 43 सैनिकों के ढेर होने की बात कही गई है। इस घटना के लिए भारतीय सैनिकों पर एलएसी का अतिक्रमण करने के चीन के आरोपों को खारिज करते हुए भारत ने साफ कर दिया हैं कि तनाव कम करने के लिए वह बातचीत को राजी है, मगर चीन की ऐसी हरकतों का माकूल जवाब दिया जाएगा। स्पष्ट हैं कि भारत सीमा विवाद सुलझाने के लिए चीन के सैन्य दबाव के सामने झुकने को कतई तैयार नहीं हैं और विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए विशेष रूप से तैयार है।
भारत ने एलएसी के पास 73 सामरिक सडकों के निर्माण की योजना बनाई हैं, जिसमें से 35 सडकों का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। पिछले कुछ वर्षों में भारत द्वारा सरहदी इलाकों में सड़क निर्माण कार्यों में जिस ढंग से तेजी दिखाई हैं, उससे चीन घबरा गया है। इस दिशा में उसका मुख्य उद्देश्य भारत के लिए सामरिक रूप में महत्वपूर्ण ग्लवान घाटी में भारत की सड़क विकास परियोजना को पूरा होने से रोकना हैं ताकि वह भारत पर अपनी सामरिक बढत बनाए रख सकें।
2008 में चीन ने भारत के साथ सैन्य विश्वास निर्माण बहाली के लिए “हैंड इन हैंड मिलिट्री एक्सरसाइज” की शुरुआत की थी। परंतु दोनों पक्षों के बीच हुई इस हिंसक झड़प से न केवल सैन्य विश्वास बहाली को ठेस पहुंची बल्कि इससे यह भी जाहिर होता हैं कि पंचशील समझौते के अनुपालन के रूप में चीन जिस आपसी भाईचारे और शांति एवं सद्भावना का संदेश देता हैं, वह उसका दिखावा मात्र है।
चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने दावा किया हैं कि विवादित क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे रक्षा निर्माण कार्यों के विरुद्ध सीमा नियंत्रण की कार्रवाही की गई है।
दरअसल भारत चीन सीमा विवाद की असल वजह क्षेत्र विशेष में बनाई जा रही सड़क नहीं बल्कि भारत का एशियाई एवं वैश्विक राजनीति में तेजी से बढ़ता कद है। वहीं चीन के लिए यह असहनीय हैं क्योंकि वह एशिया में एकमात्र शक्ति के रूप में बने रहना चाहता हैं। अपने इसी निहित स्वार्थ के चलते वह चेक एंड बैलेंस पॉलिसी के तहत समय समय पर भारत के पड़ोसी देशों को निवेश एवं आर्थिक सहायता का लालच देकर सामरिक एवं आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। ल
हाल ही में नेपाल का तीन भारतीय क्षेत्रों लिपुलेख, कालापानी और लिंपियुधरा पर अपना दावा करना और संवैधानिक संशोधन द्वारा इन सभी क्षेत्रों को अपने नक्शे में जगह प्रदान करना चीन की इसी चैक एंड बैलेंस पॉलिसी का परिणाम है।
नेपाल एक भू प्रदेश हैं अर्थात वह चारों ओर से जमीन से घिरा होने के कारण पारागमन मार्ग के लिए पूर्ण रूप से भारत पर निर्भर हैं। तत्पश्चात नेपाल का चीन की शह पर भारत विरोधी कदम उठाना चिंताजनक है।
उल्लेखनीय हैं कि भारत का नेपाल के साथ न केवल राजनीतिक, आर्थिक और व्यापारिक संबंध हैं बल्कि सदियों से सामाजिक एवं सांस्कृतिक संबंध भी बने हुए है। उसके बाद भी नेपाल का भारत विरोध चीन की भारत को घेरने की गहरी साजिश को प्रकट करता है।
जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद- 370 को भारत की संसद द्वारा समाप्त घोषित करने पर चीन ने पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाते हुए पुरजोर विरोध दर्ज किया था। इतना ही नहीं वह इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र की शक्तिशाली संस्था सुरक्षा परिषद में भी लेकर गया था, लेकिन भारत की मजबूत कूटनीति के कारण वह चंद भारत विरोधी देशों के अलावा अन्य किन्हीं शक्तिशाली देशों का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका और विशेष रूप से चीन एवं पाकिस्तान को इस मुद्दे पर मुँह की खानी पड़ी। जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने को लेकर चीन की तीखी प्रतिक्रिया जारी है क्योंकि पूर्वी लद्दाख को चीन अपने हिस्से के रूप में देखता है।
चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट, वन रोड परियोजना पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरती हैं और इस हिस्से को भारत अपना भाग कहकर विरोध कर रहा हैं। भारत का कहना हैं कि यह विवादित क्षेत्र हैं जिस पर चीन जबरदस्ती कब्जा करने जा रहा है।
परिणामस्वरूप चीन भारत की सीमाओं पर तनाव का माहौल पैदा कर दोहरी चाल चल रहा हैं अर्थात एक ओर वह भारत को उसकी अपनी प्राकृतिक सीमाओं में उलझाकर पाक अधिकृत कश्मीर में आरंभ परियोजना से ध्यान भंग करने की सोच रहा हैं। वहीं दूसरी तरफ वैश्विक समुदाय का ध्यान पाक अधिकृत कश्मीर से खींचकर भारत की वास्तविक सीमाओं पर लाकर रखने की कोशिश कर रहा है।
भारत को चीन की इस दोहरी चाल से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए उचित कदम बढ़ाते हुए परंपरागत साफ्ट डिप्लोमेसी से आगे बढ़ते हुए एग्रेसिव डिप्लोमेसी को प्रयोग में लेकर आना होगा। साथ ही भारत को क्षेत्रीय एवं वैश्विक राजनीति को भी उचित ढंग से साधने की आवश्यकता है।
वैश्विक राजनीति के संदर्भ में इस दिशा में अमेरिका-जापान-भारत-आस्ट्रेलिया का चतुष्कोणीय संबंध प्रभावी भूमिका निभा सकता हैं। भारत द्वारा इस गठबंधन को यथार्थ के धरातल पर उपयोगी बनाए जाने की आवश्यकता है, ताकि चीन की भारत विरोधी नीति को संतुलित किया जा सकें।
भारत द्वारा अपनी एक्ट ईस्ट पालिसी को सुनिश्चित रूप से कार्यान्वित किए जाने की आवश्यकता हैं ताकि दक्षिण एशियाई देशों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा सकें। वहीं इसके अलावा भारत को अन्य एशियाई देशों को राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक इत्यादि क्षेत्रों में विश्वास में लेकर आगे बढ़ने की आवश्यकता हैं ताकि इन देशों की चीन पर आर्थिक निर्भरता में कमी लायी जा सकें। इससे भारत को दो प्रमुख लाभ मिलने की संभावना हैं- पहला, चीन की घेरे की नीति से बचा जा सकेगा। दूसरा, भारत न केवल एशिया में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरेगा बल्कि चीन के कद को भी कम किया जा सकेगा।
चीन वर्तमान में भारतीय उत्पादों का तीसरा बडा निर्यात बाजार है। वहीं चीन से भारत सबसे ज्यादा आयात करता हैं और भारत, चीन के लिए एक उभरता हुआ बाजार है।
चीन से भारत मुख्यतः इलेक्ट्रिक उपकरण, मेकेनिकल सामान, कार्बनिक रसायनों आदि का आयात करता है। वहीं भारत से चीन को मुख्य रूप से खनिज ईंधन और कपास आदि का निर्यात किया जाता है। भारत में चीनी टेलीकॉम कंपनियां और चीनी मोबाइल का मार्केट बहुत बड़ा है। यहां तक कि चीन की कंपनी शंघाई अर्बन ग्रृप काॅर्पोरेशन दिल्ली मेट्रो में भी काम कर रही है।
भारत का थर्मल पावर एवं सोलर मार्केट चीनी उत्पाद पर निर्भर है। दवाओं के लिए कच्चे माल की प्राप्ति के लिए भारत पूरी तरह से चीन पर निर्भर है, जिसका दुखद परिणाम कोरोनाकाल में लाॅकडाउन के कारण चीन से कच्चे माल की पूर्ति न हो सकने के कारण दवाओं के उत्पादन एवं आपूर्ति में कमी और यकायक मूल्य वृद्धि के रूप में देखा गया। इस समस्या से शीघ्र छुटकारा प्राप्त किये जाने की आवश्यकता है।
भारत को चीन पर अपनी आर्थिक निर्भरता कम करनी होगी। इसके लिए अपनी उत्पादक गतिविधियों को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता हैं ताकि घरेलू स्तर पर अत्यधिक उत्पादन किया जा सकें। भारत को अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को भी मजबूत बनाना होगा जिस लंबे से चली आ रही कच्चे माल की कमी की समस्या से जूझना न पड़े।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने जिस आत्मनिर्भर भारत की बात कही हैं, उससे चीन का मनोबल कम जरुर हुआ है। आत्मनिर्भर भारत को पूरी तरह सफल बनाने के लिये आयात शुल्क को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बिना आयात शुल्क में वृद्धि किये आत्मनिर्भर भारत एक राजनैतिक नारा मात्र बनकर रह जाएगा। इसके लिए भारत सरकार को दृढ़ निश्चय का प्रदर्शन करते हुए आमजन को विश्वास में लेकर आगे बढ़ना होगा।
भारत चीन द्विपक्षीय व्यापार के संदर्भ में चीन हमेशा लाभ की स्थिति में होता हैं। वहीं भारत को एक बड़े स्तर पर व्यापारिक असंतुलन का सामना करना पड़ता हैं परंतु चीन कभी इस व्यापारिक असंतुलन को कम करने में कोई खास रुचि प्रदर्शित नहीं करता है।
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा विश्व के प्रभावशील देशों के समूह जी-7 का आकार बढाकर उसमें भारत को शामिल करने की बात कहकर अंतरराष्ट्रीय पटल एक नई बहस शुरू की जिस पर चीन आपत्ति दर्ज करते हुए कह रहा हैं कि यह चीन को एकसाथ विभिन्न मोर्चों पर घेरने की विकसित देशों की एक रणनीति है।
यह चीन का अपना एक पुराना बेसुरा राग है। वह हमेशा शक्तिशाली वैश्विक मंचों पर भारत की उपस्थिति का मुखर विरोध करता रहा है। उदाहरणार्थ, न्यूक्लीयर सप्लायर ग्रृप में शामिल लगभग सभी देश भारत की सदस्यता का समर्थन कर रहे हैं परंतु चीन के विरोध के परिणामस्वरूप भारत इस प्रभावी संगठन की सदस्यता प्राप्त नहीं कर पा रहा हैं। दूसरी ओर इस संदर्भ में चीन को लेकर भारत का दृष्टिकोण हमेशा से सकारात्मक रहा है।
फरवरी, 2000 में भारत ने चीन की डब्लूटीओ की सदस्यता का समर्थन किया था। यह तथ्य साबित करता हैं कि भारत, चीन के समान नकारात्मक मानसिकता का शिकार नहीं है।
चीन की भारत से नाराजगी तिब्बत को लेकर भी हैं। अप्रैल, 1959 को तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक और लौकिक प्रमुख दलाई लामा अपने अनुयायियों के साथ चीनी सेना के अत्याचारों से परेशान होकर मौका पाकर वहां से भाग निकले और भारत आकर शरण मांगी। भारत ने अपने उदार हृदय का परिचय देते हुए एवं सदियों पुरानी अपनी अतिथि देवो भव: की भावना को बनाए रखते हुए उन्हें शरण प्रदान की। इस पर चीन आज तक भारत से नाराजगी जाहिर करता है।
भारत चीन सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ साथ सैनिक क्षेत्र में विश्वास उत्पन्न करने वाले अनेक समझौते किये गये जिनमें 1993 और उसके बाद के वर्षों में हुए समझौते प्रमुख है। इन सभी समझौतों का मुख्य उद्देश्य यह था कि दोनों देश सीमा विवाद को अलग रखकर अन्य क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण सद्भावना को बढ़ायेंगे तथा नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने का प्रयास करेंगे। परंतु चीन अपनी महत्वाकांक्षी नीतियों के वशीभूत होकर इन सभी समझौतों की शर्तों का खुलेआम उल्लघंन करता चला आ रहा है।
चीन जानबूझकर सीमाओं को चिन्हित करने से बचता चला रहा हैं ताकि निहित स्वार्थ के कारण भारत को समय समय पर दबाव में लाकर अपनी शर्तों को मनवाया जा सकें। परंतु चीन की यह गलतफहमी वर्ष 2017 के डोकलाम विवाद ने दूर कर दी जिसमें चीन को अपने बढते कदम वापिस खींचने पड़े थे।
डोकलाम के बाद भारत एक नए रूप में बिना किसी बाह्य दबाव के अपनी नीतियों को आकार दे रहा हैं। अपने कार्यों से भारत ने स्पष्ट कर दिया हैं कि राष्ट की एकता, अखण्डता एवं संप्रभुता के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ को सहन नहीं करेगा।
भारत को अपनी आर्थिक शक्ति को मजबूती प्रदान करने के लिए एक व्यापक रणनीति बनाए जाने की आवश्यकता हैं ताकि वैश्विक बाजार में वस्तु एवं सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित की जा सकें जिससे विश्व में चीन की आपूर्ति श्रृंखला को कमजोर बनाकर उसे आर्थिक मोर्चे पर कमजोर बनाया जा सकें।
-मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक
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