सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली
वर्षों से विश्व के लगभग हर कोने में हिंदी व्यवहारिक भाषा के तौर पर बोली जा रही है। स्पष्ट है कि हिंदी की अस्मिता को कोई खतरा ना कल था, ना ही आज है। हिंदी कबीर, नानक, तुलसी, सूर, मीरा और गालिब सभी की भाषा रही है। हिंदी अस्मिता की जड़ें तो अपनी बहुलतावादी सामासिक सांस्कृतिक उर्जा के कारण गहरी जमी हुई हैं।
महात्मा गांधी की पुस्तक “राष्ट्रभाषा” में उद्धृत है कि “पांच लक्षणों से युक्त हिंदी भाषा की समता करने वाली दूसरी कोई भाषा नहीं है।” 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा हिंदी भारत संघ की राजभाषा के रूप में मान्य हुई थी। बीते दशकों से देवनागरी कंप्यूटर तैयार हो जाने के बाद तो हिंदी फॉन्ट बख़ूबी टंकित हो रही है। हिंदी तथा अनेक क्षेत्रीय भाषाएं संपर्क और संप्रेषण की भाषा बनी हुई हैं।
हिंदी के लिए विभिन्न दिवसों का आयोजन होना अब सोचनीय बात नहीं रही। कहने का मतलब है कि आयोजन तो अब भी हो रहे हैं लेकिन अपने एक नए तेवर में। आज इसे जबरदस्त जन समर्थन मिल रहा है। इतना ही नहीं राजाश्रय के साथ साथ बाजार का भी ख़ूब आश्रय मिल रहा है।
साहित्यिक भाषा के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता तो चारों ओर है, बोलचाल की भाषा में भी इसकी गहरी पकड़ है। हिंदी तो वह है जो सहज ही सुगमता से बोली जाती है जिससे खुले वातावरण में इसका स्वाभाविक विकास हो पाता है। यह माना जाना कि “देश में संवाद की जरूरत है अनुवाद की नहीं,” हिंदी भाषा के लिए प्रयुक्त किया गया यह वाक्य एक वृहद अर्थ रखता है, क्योंकि जन जन के संवाद का माध्यम तो हिंदी ही है। किसी भी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए, पर संकल्प के साथ, कार्य और अभिव्यक्ति की भाषा राष्ट्रभाषा को ही होना चाहिए, जो अब कुछ कुछ मूर्त रूप में दिखने भी लगा है।
राष्ट्रभाषा तो संस्कृति और परंपरा की पोषक होती है। महान साहित्यकार प्रेमचंद ने भी कहा है कि “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र, राष्ट्र नहीं है।” पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपने कार्यकाल में एक सराहनीय प्रयास किया था। उन्होंने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनवाने की पहल की थी। कभी माननीय अटल जी ने कहा था कि “हिंदी की बात बहुत होती है, लेकिन हिंदी में बात बहुत कम होती है। यदि हिंदी में बात ज्यादा होने लगे, तो हिंदी से जुड़ी समस्या ही खत्म हो जाएगी।”
आज़ वर्तमान प्रधानमंत्री माननीय मोदी जी के नेतृत्व में उस बात पर ना सिर्फ अमल किया गया है बल्कि उसे साकार भी किया गया है। हिन्दी भाषा को “राष्ट्रभाषा” का दर्जा मिलना समय की मांग हो गई है। सरकारी भाषा के रूप में हिंदी का इस्तेमाल होना ही हिंदी का सम्मान है।
हिंदी या अंग्रेजी कोई तर्क-वितर्क का विषय न होकर गहन विचार का विषय होना चाहिए। सवाल हिंदी की प्रमुखता का होना चाहिए ना कि अंग्रेजी की अनिवार्यता का। नई विश्व व्यवस्था और भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेजी को स्थान देना कुछ ग़लत नहीं होगा, हां अनिवार्यता सख़्त क़दम जरुर माना जाएगा, क्योंकि इससे हिंदी हासिए पर चली जाती थी। अंग्रेजी भाषा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनसंपर्क और सामयिक ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित हुई ही, इसलिए इसकी उपस्थिति से विरोध कैसा? प्राप्त जानकारी के साथ अतिरिक्त जानकारी का होना अच्छा होता है।
अंग्रेजी को एक सहायक भाषा के रूप में स्थान देना और अपनाना कोई अनुचित बात नहीं होगी, अनुचित तो यह हो रहा है कि हम सदियों से अपनी राष्ट्रभाषा का प्रयोग करने से हिचकिचाते रहे हैं। जबकि हिंदी तो संपूर्ण जीवन दर्शन है, जिसकी झलक विगत कुछ वर्षों से विभिन्न पद प्रतिष्ठित महानुभावों द्वारा हिंदी में कही गई उनकी बातों से और किए गए कार्यों से मिलता है। अब से पहले अक्सर होता यह आया है कि हम हिंदी को स्वयं ही बेचारगी का चोगा पहनाते आए हैं।
इसलिए यह कहना शायद ग़लत होगा कि हम आधुनिकीकरण की होड़ में अपने देश का पाश्चयातिकरण कर रहे थे। जरूरत तो यह है कि सही नीति निर्धारण करके उसे भाषा की उपयोगिता के आधार पर स्वीकार करने की, जिसका जिक्र इस साल संशोधित नई शिक्षा नीति में भी हुआ है, जो स्वागत योग्य कदम है।
हम यह जानते हैं कि हिंदी एक सुविधासंपन्न भाषा, संसार की अन्य भाषा-बोलियों के शब्दों को आत्मसात करते हुए शक्तिशाली होती गई है। अनवरत एक गतिशील भाषा की तरह गति करती आ रही है हिंदी। एक समृद्ध भाषा के रूप में इसका प्रभाव इतना व्यापक है कि हिंदी भाषी मनोरंजन और समाचार चैनलों के दर्शकों में आशातीत बढ़ोतरी हुई है।
फलस्वरूप ऐसे कार्यक्रमों की मांग भी बढ़ी है और हिंदी ने रिकॉर्ड तोड़ उपस्थिति दर्ज़ कर लिया है। हिंदी के पत्र पत्रिकाओं की संख्या में नित नित वृद्धि हो रही है। हालांकि विगत दिनों कुछ लोकप्रिय पत्रिकाओं के बंद होने की भी खबर आई, जो कि बेहद दुखद है। हिंदी चैनलों की बढ़ती लोकप्रियता इसके प्रमाण हैं।
हिंदी समाचार पहले से भी ज्यादा सुने और देखे जा रहे हैं। पब्लिक के वोट, टीआरपी बताते हैं कि हिंदी सचमुच में जनभाषा है, संपर्क भाषा है और नि:संदेह राष्ट्र भाषा के रूप में ताज पहनने की हकदार है। हिंदी तो भारत माता के भाल की बिंदी है। दरअसल हिंदी की दिशा ने हिंदी की दशा का वर्णन कर दिया है।
परिदृश्य बदल गया है। हिंदी की उड़ान ऊंची हो गई है। हिंदी के नए स्वरूप ने नई शैली का इज़ाद कर लिया है, जिसका हर क्षेत्र में पुरजोर स्वागत हो रहा है। तकनीक की रफ़्तार से भी यह बदलाव नजर आ रहा है। हिंदी, साइबर स्पेस में दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषाओं में शामिल हो चुकी है। ऐसा लगता है मानो सूचना के महासागर में हिंदी रुपी महाद्वीप का उदय हो चुका है।