जनता का शासन एवं जनप्रतिनिधि: मोहित कुमार उपाध्याय

भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान में शासन की संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया गया है। जिसमें जनता अप्रत्यक्ष रूप से अर्थात जन-प्रतिनिधि प्रणाली के माध्यम से शासन व्यवस्था का संचालन करती है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था की इस जन-प्रतिनिधि प्रणाली को अपनाया है, क्योंकि आज के समय में शासन व्यवस्था को संचालित करना एक जटिल एवं तकनीकी विषय बन गया है, जो साधारण व्यक्ति की पहुंच से परे की बात है।

इस व्यवस्था में विधायिका एवं कार्यपालिका कुशल एवं सक्षम नौकरशाही की सहायता से जनता के हित में नीतियों का निर्धारण और ऐसी नीतियों एवं आदेशों को समुचित ढंग से कार्यान्वित करती है। भारत के लिए यह विडंबना ही है कि संसदीय व्यवस्था की इस जन-प्रतिनिधि प्रणाली को जिस उद्देश्य के साथ संविधान में शामिल किया गया था उस उद्देश्य को प्राप्त करने में यह सफल साबित नहीं हो पा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है इसमें अनेक कारण शामिल हैं। उदाहारणस्वरूप- निहित राजनीतिक स्वार्थ, भ्रष्टाचार, राजनीतिज्ञों में पदों की लालसा, अनुशासन के नाम पर राजनीतिक दलों में पार्टी लाइन का अनुसरण, दल बदल कानून में निहित कमजोरी, व्हिप का दुरूपयोग इत्यादि।

यह गर्व का विषय है कि भारत एक उदार लोकतंत्र में विश्वास करता है जिसने शासन की संसदीय व्यवस्था को अपनाया है जो जनप्रतिनिधियों के माध्यम से शासन को संचालित करती है। शासन व्यवस्था की इन तीनों विशेषताओं को एक साथ मिला दिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में जनता सर्वोपरि है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित शब्द ‘हम भारत के लोग’ भी यही उद्देश्य प्रकट करते है कि राजनीतिक शक्ति जनता में निहित है।

वर्तमान परिस्थितियों में अगर ध्यान से देखा जाए तो संविधान की यह भावना कमजोर साबित हो रही है। विधानमंडल में निर्वाचित सदन का बहुमत प्राप्त दल जिसे आम बोलचाल की भाषा में सरकार भी कहा जाता है, मनमानी नीतियों का निर्माण कर अपना राजनीतिक एजेंडा एवं स्वार्थ साधने का प्रयास करता है। आखिर आजादी के 70 वर्षों से भी अधिक समय बीत जाने पर भी हम देश से गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा का अभाव, स्वच्छ जल की अनुपलब्धता इत्यादि मूल समस्याओं को दूर कर पाने में सफल साबित क्यों नहीं हो पाए हैं।

एक ओर जहां भारत में सरकारें (केंद्र एवं सभी राज्यों की सरकार) स्वयं को लोककल्याणकारी होने का दावा करती है, जनता की हितैषी होने का दावा करती है वहीं दूसरी ओर मूल सुविधाओं के नाम पर जनता को भटकने को मजबूर किया जाता है। संविधान में जिस सुंदर समन्वय के साथ परिसंघीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है उसका स्वरूप केवल केंद्र एवं राज्य सरकारों की विभिन्न विषयों पर राजनीतिक कारणों से आपसी लड़ाई के रूप में देखा जा सकता है। केंद्र एवं राज्य सरकारों में जनता को प्रदान की जाने वाली मूल सुविधाओं एवं विभिन्न सेवाओं के नाम पर एक दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है और ऐसी स्थिति तब अधिक देखने को मिलती हैं जब राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों की सरकार अस्तित्व में हो। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में जनता के एक बड़े वर्ग में राजनीतिक चेतना का अभाव दिखाई पड़ता है जिसका दुष्परिणाम विभिन्न रूपों में सामने आता है। निर्वाचन के दौरान राजनीतिक दलों के उम्मीदवार जनता को धर्म, जाति, क्षेत्र, संप्रदाय इत्यादि के जाल में उलझाकर वोट बटोरने का कार्य करते हैं और चुनाव जीतने के पश्चात भोली-भाली जनता से मुंह फेर लेते हैं और दोबारा चुनाव होने तक गायब हो जाते हैं और फिर से उसी प्रक्रिया का पालन करते है और जनता को मूर्ख बनाने का यह क्रम लगातार बना रहता है।

इससे न केवल जन-प्रतिनिधि प्रणाली की भावना कमजोर होना शुरू हो जाती है बल्कि राजनीति में स्वच्छ छवि के व्यक्तियों के स्थान पर आपराधिक एवं भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्तियों का प्रवेश आसान हो जाता है। वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति कुकुरमुत्ते के समान पनपती नजर आ रही है। विभिन्न राजनीतिक दलों में साधारणतया यह देखा जा रहा है कि उम्मीदवार के जीतने की संभावना के नाम पर भ्रष्ट एवं आपराधिक मामलों में संलिप्त पाए जाने वाले ऐसे लोगों को जिन पर विभिन्न न्यायालयों में केस लंबित हो, को अधिक प्राथमिकता प्रदान की जा रही है। राजनीति में यह नया चलन स्वच्छ लोकतंत्र की निशानी नहीं है और यह लोकतंत्र को जर्जर करने में ही अधिक उपयोगी साबित होगा।

इसके पीछे यह दलील दी जाती है कि जब तक किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा दोषी नहीं ठहराया जाता है तब तक वह व्यक्ति अपराधी नहीं कहलाएगा। आम तौर पर ऐसा भी कहा जाता है कि राजनीति से जुड़े लोगों पर राजनीति से प्रेरित मुकदमे ही अधिक दर्ज कराये जाते है। इन्हें अतार्किक दलील ही कहना उचित होगा क्योंकि निष्पक्ष एवं स्वतंत्र जांच के पश्चात ही जांच अधिकारी द्वारा कोई भी मामला दर्ज किया जाता है।

एक ओर जहां सरकारी सेवाओं में ऐसे किसी भी व्यक्ति को शामिल नहीं किया जा सकता है जिस पर न्यायालय में किसी मामले को लेकर कार्रवाई लंबित हो वहीं राजनीतिक वर्ग के लोगों को इससे पूरी तरह छूट प्राप्त है। यह दोहरा रवैया किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसके लिए जनता को मुखर होने की आवश्यकता है ताकि वह ऐसे अयोग्य लोगों को अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर न दें जो जनता के विकास एवं प्रगति के नाम पर अपनी सियासी रोटियां सेंकते है और उच्च राजनीतिक पद की लालसा लिए घूमते है।

महात्मा गांधी का मानना था कि राजनीति का तात्पर्य समाज की सेवा से है, परंतु वर्तमान समय में ऐसा बहुत कम राजनीतिज्ञों में देखने को मिलता है जो राजनीति को समाज की सेवा का माध्यम मानते है। आज राजनीति को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम न समझकर पद एवं शक्ति के रूप में देखा जाने लगा है जो कि जनता के साथ एक छल है। ऐसे स्वार्थी जनप्रतिनिधि जब कार्यपालिका में शामिल होते हैं, मंत्री पद धारण करते हैं, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में पदग्रहण करते है तब कैसे ये लोग देश एवं जनता की समस्याओं को दूर करने में अपनी पूरी क्षमता के साथ कार्य करने को तैयार होंगे! इनसे ऐसी कोई आशा करना बेईमानी होगी जब तक कि ईमानदार, योग्य, कर्मठ एवं स्वच्छ छवि के व्यक्ति को जिसके लिए जनता ही सरकार हो, अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर नहीं देंगे।

इसके लिए जनता में राजनीतिक चेतना का उत्पन्न होना और अपने मत की कीमत को समझना होगा। साथ ही जनता को जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय इत्यादि मत के पारंपरिक तरीकों से ऊपर उठकर सोचना होगा। इसके लिए राजनीतिक दलों को भी जिताऊ उम्मीदवार के फार्मूले के लालच में पड़ने से बचना होगा और ऐसे उम्मीदवारों से दूरी बनाकर रखनी होगी जिसका आचरण जनप्रतिनिधि बनने के लिए अनुचित हो। इससे राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराधियों के राजनीतिकरण पर रोक लगाने में एक सीमा तक मदद मिलेगी।

इस कार्य में राजनीतिक दलों की अहम भूमिका है क्योंकि जनता राजनीतिक दलों द्वारा सुझाए गए उम्मीदवारों को ही चुनौती है इसीलिए राजनीतिक दलों द्वारा इस दिशा में विशेष पहल की जानी चाहिए और केंद्र एवं राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को इस पर व्यापक विचार-विमर्श के साथ ही जन-प्रतिनिधि कानून में संशोधन कर ऐसे नियमों को शामिल करना चाहिए जिससे विधानमंडल में वहां तक के सिवाय जहां तक योग्य एवं कुशल व्यक्तियों का चयन कराया जा सकें। जब तक जनता को स्वच्छ छवि के उम्मीदवारों का विकल्प उपलब्ध नहीं होगा तब तक उनके लिए ऐसा चयन करना मुश्किल होगा।

समाज एवं राजनीतिक दलों को ईमानदार एवं स्वच्छ छवि के लोगों को राजनीति में प्रवेश करने के लिए सहयोग एवं प्रोत्साहन करना चाहिए। जनता को राजनीति दलों द्वारा चुनाव के समय की जाने वाली मुफ्त घोषणाओं से दूरी बनाकर चलना चाहिए क्योंकि इससे ये मुफ्त घोषणाएं विकास की निशानी नहीं है बल्कि विनाश की निशानी है।  इसके लिए आम जनता एवं सभी राजनीतिक दलों को साथ मिलकर कार्य करना होगा। 

गौरतलब है कि न्यायालय द्वारा यह निर्देश दिया गया है कि चुनाव लड़ने से पूर्व प्रत्येक उम्मीदवार को अपना आपराधिक रिकॉर्ड निर्वाचन आयोग के सामने घोषित करना होगा। न्यायालय ने ये भी कहा है कि राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के संबंध में सभी जानकारी अपनी वेबसाइटों पर डालेंगे। इससे राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराधियों के राजनीतिकरण पर रोक लगाने में एक सीमा तक मदद मिलेगी।

कोविड की दूसरी लहर के दौरान जब देश में हाहाकार मचा हुआ था और समुचित इलाज के अभाव में मरीज अपने परिवार के लोगों की गोद में दम तोड़ रहे थे तब जन-प्रतिनिधियों का अपने क्षेत्रों की जनता के साथ जो घोर उपेक्षित रवैया किया गया वह किसी दुस्वप्न से कम नहीं था। आखिर जिन लोगों को जनता द्वारा पलकों पर बैठाकर भारी भरकम जीत के साथ संसद या विधानसभा भेजा गया, ऐसे प्रतिनिधियों को भारी बहुमत देकर सत्ता की चाबी सौंप दी गई तत्पश्चात सरकार के रूप में जनता के ये सभी प्रतिनिधि अपने उत्तरदायित्व से कैसे बच निकल सकते है! आखिर कैसे ये सभी जनता के पास जाकर अपने दल या जनप्रतिनिधि के रूप में किए गए कार्यों के नाम पर वोट मांग सकते है! ऐसे अनेक विचारणीय प्रश्न है।

कोविड की दूसरी लहर में न केवल केंद्र एवं राज्यों में सत्तारूढ़ दल में शामिल जनप्रतिनिधियों की कलई खुल गई बल्कि अन्य राजनीतिक दलों के जनप्रतिनिधियों, नेताओं इत्यादि का दोहरा रवैया स्पष्ट नजर आ गया। अब समय आ गया है कि भारत के ऐसे सभी व्यस्क नागरिक जिन्हें भारत के संविधान द्वारा अनुच्छेद-326 के अंतर्गत मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है, मतदान के अपने संवैधानिक अधिकार को पहचानते हुए अपने सभी आवश्यक अधिकारों को लेकर मुखर बनें और जाति, धर्म इत्यादि से परे जाकर ऐसे जनप्रतिनिधि का चयन करें जो शिक्षित एवं योग्य हो क्योंकि जनप्रतिनिधियों से विधानमंडल का निर्माण होता है और विधानमंडल से कार्यपालिका और कार्यपालिका ही सरकार है इसीलिए जनहितैषी सरकार के लिए योग्य जनप्रतिनिधि का चयन पूर्व शर्त है।

आशा है कि कोरोना की दूसरी लहर में आमजन जिस बुरे ढंग से सरकार की घोर लापरवाही का शिकार हुए उससे सबक लेते हुए भारत के लोग अपने नागरिक अधिकारों को लेकर जागरूक बनेंगे। किसी भी देश के नागरिकों में अगर राजनीतिक चेतना का अभाव है तो ऐसे देश में परिपक्व लोकतंत्र एवं कल्याणकारी राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

मोहित कुमार उपाध्याय
भारतीय राजनीति, संविधान एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार