अक्सर मैं सोचती हूँ, ये जो कुछ लोग हैं, जो सिर्फ कहते ही क्यूँ हैं? क्या वे सुन नहीं पाते? समझ नहीं पाते? या किसी मानसिक बीमारी के अधीन हो गये हैं? क्या ये वो लोग हैं जो वास्तविक ज्ञान से गरीब हैं, जो बिना जाने किसी भी बात पर एकपक्षीय बयानबाजी से बाज नहीं आते।
जब आप अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं तो बहुत से लोग चाल-चलन देखने लगते हैं। आप के साथ आप के निकटवर्ती संबंधों को भी छेड़ने लगते हैं। यही है आज की वर्तमान परिस्थिति जो अपने काम से ज्यादा दूसरों को नीचा दिखाने के लिए अपना अमूल्य समय, जलन की चिता को भेंट चढ़ाते हैं।
यदि आप गलत को गलत कहने का साहस नहीं रखते तो कोई बात नहीं, पर सही पे झूठ की स्याही किस लिए पोततें हैं? आप अपनी बौद्धिक निर्धनता का प्रदर्शन सार्वजनिक क्यूँ करते हैं? यदि आप या मैं स्वयं को बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं तो बेतुके पचडे़ में क्यूँ पड़ना हमें, हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि कहीं-कहीं अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग किसी की व्यापक हानि का कारण बन सकता है।
याद रहे अजन्मी कल्पना को यथार्थ रूप देना समाज के लिए घातक होता है, हम किसी के बारे में क्यूँ निर्णय लें कि फलां कौन कैसा है, वो क्या करता है परिवार से क्यूँ नहीं बनती। सबका अपना अगल-अलग मुद्दा है। हम भला दूसरों के जंजाल में क्यूँ अटकें, हम सबसे पहले खुद को तहज़ीब की तालीम दें, न कि दूसरों को। कुछ अच्छा सीखो और दूसरों को भी सिखाओ। न कि बेवजह कहते चले जाओ। नया दौर है, नया जमाना है, अफवाहों पे निगाहें क्यूँ रखनी।
अधिकांश तौर पर देखती हूँ कि कोई अच्छा काम करो तो कुछ लोग नुक़्स निकालने के लिए आ जातें हैं, जबकि स्वयं के पास निर्णय लेने का हुनर भी नहीं उनमें, बस बेलगाम कहने की लत को पेशा बनाये फिरना और दूसरों को सही मार्ग से भटकाने का काम करते रहते हैं और इसे अपनी बुद्धिमानी समझने की भूल कर बैठतें हैं।
सही-गलत का आईना लिए समय निरंतर हमारे ईद-गिर्द घूमता रहता है। काल की दृष्टि में सभी को आना है। मेरा यही कहना है कि लोगों को जो कहना है कहने दें, क्योंकि वक्त जवाब देना नहीं भूलता है। ज़िंदगी की मस्ती इन सस्ते लोगों के पीछे ना गंवाएं बस चलते जाएं और चलते जाएं।
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश