कई माह से ऐसा प्रतीत हो रहा है, कौन कर रहा है फजाओं में राजनीति, सत्ता का असर, मौसम का कहर या सम्बन्धों में बिखराव जिससे वायु की बदलती चाल को देख बड़ी तेजी से हाथ पांव पसार रहा है लालच। सभी लालच की बेडियों में बंधे हुए हैं, जैसे किसी गुलामी की जंजीर से बंधे हैं सभी।
हो ना हो यह लालच की राजनीति का असर है, लालच के हमाम में सभी निर्वस्त्र नहा रहे हैं। शर्म आँखों से धुल चुकी है लालच इतना बढा़ हुआ है कि दिशाएं भी भ्रमित होने लगी इंसानियत खोने लगी और हम मानसिक रूप से विकलांग होने लगे।
मुस्कान भरे संदूक में लालच परिधि बना कर बैठ गयी और हम सभी उस परिधि के परिक्रमा करने में जुट गए, लालच की ताकत के मध्य व्यक्तिगत रक्त संचार भी ग्रसित हो गया लालच की बारिश में सभी भीगे जा रहे हैं। नदी सागर भर गया और मानवता मुट्ठी में बंद रेत के समान गुमसुम उदास उंगलियों के मध्य से सरकती जा रही और हम सभी लालच की राजनीति में दिलों जान से जुड़े हुए हैं।
लालच के दंश से ग्रसित आँगन से जाकर पूछो वहाँ पसरा हुआ है श्मशान-सा सन्नाटा, जहाँ से रह-रहकर चीख भरी आवाज सुनाई दे रही है। जहाँ की रोशनी अंधेरा उगल रही है। सगे, सगे नहीं रहे कोई किसी को अपना मानने को तैयार नहीं। क्या लालच का संक्रमण इतना फैल गया कि कीटांणु जीवंत अस्तित्व को डंस रहे हैं।
हमारी मानवता को चन्द वहशी सूत्र अपना ग्रास बना रहे हैं और लाखों आम लोग अपनी सात्विक परिभाषा की खोज में दर-दर भटक रहे हैं।
‘लालच का तमस
रात्रि में, ठंडी हवा भी
अंगारे उगलना सीख गयी’
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश