उत्तराखंड में चल रहे विधानसभा सत्र के बीच अपने घर से निकलते समय संविधान की मूल प्रति को लेकर सदन पहुंचने के साथ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक ओर यह कहकर देश में नई बहस शुरू कर दी है कि ”देश के संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 को सार्थकता प्रदान करने की दिशा में आज का दिन देवभूमि उत्तराखंड के लिए विशेष है। देश का संविधान हमें समानता और समरसता के लिए प्रेरित करता है और समान नागरिक संहिता कानून लागू करने की प्रतिबद्धता इस प्रेरणा को साकार करने के लिए एक सेतु का कार्य करेगी।” इसके साथ सदन में पहुंचकर उन्होंने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक को सदन के पटल पर रख यह बता दिया है कि प्रत्येक नागरिक की समानता को लेकर जो शुरुआत उत्तराखंड से हुई है, वह अब अनेक राज्यों में होते हुए केंद्र तक जाएगी।
देहरादून स्थित जामा मस्जिद शहर काजी मोहम्मद अहमद कासमी, मुस्लिम सेवा संगठन के अध्यक्ष नईम कुरैशी , इमाम संगठन के अध्यक्ष मुफ्ती रईस, नुमाइंदा ग्रुप याकूब सिद्दीकी, लताफत हुसैन और राज्य बेग , ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी, बोर्ड के महासचिव मोहम्मद फजलुर्रहीम मुजद्दीदी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी समेत देश भर में मुस्लिम रहनुमाई का दम भरने वाले आज कई नेता है जोकि यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) का खुलकर विरोध कर रहे हैं ।
वास्तव में इन सभी की छोटी मानसिकता से साफ समझ आ रहा है कि वह भारत के तमाम मुसलमानों को गुमराह करने के कार्य रहे हैं । कहना होगा कि आज कहीं न कहीं ये सभी और इन जैसे भारत में मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर मजहब को ऊपर रख देश को तोड़ने का ही कार्य कर रहे हैं । जब ये लोग कहते हैं कि मुसलमान का मतलब अपने आपको अल्लाह के हवाले करना है, इसलिए हमें पूरी तरह शरीअत पर अमल करना है। तब ये सभी यह भी मंशा जाहिर कर देते हैं कि उन्हें देश के कानून से कोई लेनादेना नहीं है।
पर्सनल लॉ बोर्ड तो सीधे धमकी देने तक पर उतर आया है, कह रहा है ”मुल्क में अगर भाईचारा खत्म हो गया तो मुल्क का इत्तेहाद पार हो जाएगा। अगर नफरत के जहर को नहीं रोका गया तो ये आग ज्वालामुखी बन जाएगी और मुल्क की तहजीब, उसकी नेकनामी, इसकी तरक्की और इसकी नैतिकता सब को जलाकर रख देगी।” अब इनसे कोई पूछे, कौन फैला रहा है नफरत ? देश के कई राज्यों में आज ”सर तन से जुदा” के नारे क्यों लग रहे हैं?
हम सबको याद है कि 1948 में जब हिंदू कोड बिल संविधान सभा में पहली बार पेश किया गया, तब कुछ लोगों ने इसका जमकर विरोध किया, किंतु डॉ. भीमराव आम्बेडकर अपने उद्देश्य से डिगे नहीं। वे भारत की स्त्रियों को हर स्थिति में समान अधिकार दिलाने के लिए संकल्पित थे। तत्कालीन कानून मंत्री आम्बेडकर ने 5 फरवरी, 1951 को हिंदू कोड बिल को संसद में दोबारा प्रस्तुत किया। इसके बाद 17 सितंबर, 1951 को चर्चा के लिए इस बिल को फिर संसद के पटल पर रखा गया। संसद में विरोध के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में बांट दिया, जोकि अंबेडकर को सही नहीं लगा और उन्होंने आहत होकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक दे दिया।
डॉ. आम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल पारित करवाने को लेकर साफ कहा कि ”मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिंदू कोड बिल पास कराने में है।” और आखिर 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट आया, जिसके अंतर्गत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। फिर 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम देश में संवैधानिक नियमन से लागू हुए ।
कह सकते हैं कि ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे। इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार और लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया। उस समय भी संसद का इस बात पर जोर था कि यह कानून सिर्फ हिन्दुओं के लिए नहीं भारत में रहनेवाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान रूप से लागू हों। इस संदर्भ में इतिहास और संसद की बहसें देखी जा सकती हैं कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार खासकर जवाहरलाल नेहरू इसके लिए तैयार नहीं हुए और यह कानून हिन्दुओं तक सीमित होकर रह गया। फिर जो भी आज यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’।
इस दिशा में उत्तराखंड सरकार ने जो पहल सदन में बिल पेश कर की है, उसके कानून बनते ही यहां की विशेषकर आधी मुस्लिम आबादी के साथ न्याय हो सकेगा। बहुविवाह पर रोक लगेगी। महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार मिलेगा, बच्चों को गोद लेने का भी अधिकार पाना संभव होगा। सभी धर्मों में लड़की की शादी की न्यूनतम आयु 18 वर्ष होगी। वर्तमान में मुस्लिम समाज शरिया पर आधारित पर्सनल लॉ के तहत संचालित है। इसमें मुस्लिम पुरुषों को चार विवाह की इजाजत है। इसके लागू होते ही एक विवाह ही मान्य होगा। मुस्लिम लड़कियों को भी लड़कों के बराबर अधिकार मिलेगा। इद्दत और हलाला जैसी कुप्रथा पर प्रतिबंध लगेगा। तलाक के मामले में शौहर और बीवी को बराबर अधिकार मिलेंगे।
इसी प्रकार से सभी धर्म के लोगों को लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा। इसमें विवाह का पंजीकरण भी जरूरी है। साथ ही अन्य भी बहुत कुछ है जो स्त्री-पुरुष के बीच के विभेद को इसके माध्यम से धामी सरकार ने समाप्त करने का प्रयास किया है। अच्छा हो कि इसकी खूबियों को सभी मुस्लिम समझें, विरोध छोड़ धामी सरकार के इस निर्णय पर उसकी प्रशंसा करने आगे आएं। वहीं आज जरूरत इस बात की भी है कि जो पहल उत्तराखंड से शुरू हुई है, वह रुके नहीं। देश के अन्य राज्य और केंद्र सरकार भी जल्द इस पर कानून बनायें।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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