सुजाता प्रसाद
स्वतंत्र रचनाकार
शिक्षिका- सनराइज एकेडमी
नई दिल्ली, भारत
उत्तर भारत में माता वैष्णो देवी सबसे प्रसिद्ध सिद्धपीठ है। माता वैष्णोदेवी महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली का संयुक्त अवतार हैं। वेद पुराणों में वर्णित है कि श्री माता वैष्णो देवी भगवान विष्णु के कल्कि अवतार की भावी पत्नी हैं। इसलिए माता वैष्णोदेवी को श्रीहरि विष्णु जी की शक्ति का रुप भी माना जाता है। कुछ परंपराओं के अनुसार यह मंदिर सभी शक्तिपीठों में सबसे पवित्र है, क्योंकि मान्यता है कि माता सती का कपाल यहीं गिरा था। इसलिए माता वैष्णो देवी भी ऐसे ही स्थानों में से एक है जो माता का निवास स्थान माना जाता है। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार माता वैष्णोदेवी मंदिर, मां आदिशक्ति दुर्गा स्वरुप देवी को समर्पित है जिन्हें त्रिकूटा और वैष्णवी नाम से भी जाना जाता है। इस धार्मिक स्थल की आराध्य देवी माता वैष्णो देवी को अधिकांश तीर्थयात्री मां दुर्गा का रुप मानते हैं, जिन्हें माता रानी, शेरावाली, ज्योतिवाली, पहाड़ावाली जैसे अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। वैष्णो देवी मंदिर में आयोजित होने वाले सबसे प्रमुख त्योहारों में नवरात्रि का त्योहार है, जो नौ रातों का त्योहार है, जिसमें दुष्ट राक्षसों पर देवी की जीत का उत्सव मनाया जाता है। इस संदर्भ में एक कथा है। सनातन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार संसार में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढ़ते जाने पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रुप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। यह कन्या त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वरम में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रूप में अवतरित हुई। कई सालों से संतानहीन रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुटा नाम दिया, परन्तु भगवान विष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण वैष्णवी नाम से विख्यात हुई। लगभग नौ वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ कि भगवान विष्णु ने इस पृथ्वी पर भगवान श्रीराम के रूप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी। जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वरम पहुंचे। तब समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है। किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो। जब श्री राम ने रावण के विरुद्ध विजय प्राप्त किया तब मां ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। इसलिए इस कथा के संदर्भ में लोग नवरात्र के नौ दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। कन्या त्रिकूटा की तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीराम ने वचन दिया था कि त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी, अमरत्व को प्राप्त करेंगी और समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी।
विश्व प्रसिद्ध और अति प्राचीन श्री माता वैष्णो देवी का मंदिर भारत के राज्य जम्मू और कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में कटरा नगर के आसपास की पहाड़ियों पर स्थित है। यहां से लगभग 5,200 फीट की ऊंचाई पर मातारानी का मंदिर स्थित है, जिसे माता का भवन कहा जाता है। वास्तव में देवी का भवन पवित्र गुफा है जिसकी लंबाई 98 फीट है। इस गुफा में एक बड़ा चबूतरा बना हुआ है। इस चबूतरे पर माता का आसन है जहां देवी त्रिकुटा अपनी माताओं के पिंडी रुप में विराज रही हैं। श्री वैष्णो देवी मंदिर देश विदेश के लोकजन के बीच अत्यंत लोकप्रिय मंदिर है। माता वैष्णो देवी के दिव्य दर्शन के लिए भक्तों को कटरा से चौदह किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। आजकल अनेक अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। भक्तजन चौदह किलोमीटर की चढ़ाई करके भवन तक पहुँचते हैं। घोड़ा, पिट्ठु, पालकी, वैन, बस, हेलिकॉप्टर, और भवन से भैरवनाथ मंदिर तक ट्राम रोपवे जैसी अनेक सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं। श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड ने यात्रा को और सुगम बनाने के लिए रोपवे प्रोजेक्ट की भी शुरुआत की जा रही है। यह परियोजना ताराकोट से सांझीछत तक संचालित होगी। ऐसा होना विशेष रूप से उन श्रद्धालुओं के लिए वरदान साबित होगा जो शारीरिक या अन्य कारणों से यात्रा करने में असहज होते हैं।
माता वैष्णो देवी की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं को सबसे पहले कटरा पहुंचना होता है। यहां पहुँचने के लिए मुख्यतः दो साधन हैं रेलवे और रोडवे। रेलगाड़ी से यात्रा करना ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण लोग ट्रेन से आना पसंद करते हैं। दिव्य और भव्य श्री माता वैष्णोदेवी मंदिर, जम्मू-कश्मीर की सुरम्य पहाड़ियों के बीच त्रिकूटा पर्वत की ढलान पर अवस्थित है। जहां हर वर्ष लाखों श्रद्धालु मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। त्रिकुटा पहाड़ी का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। वेद पुराण के अनुसार जम्मू के कटरा में स्थित यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित 108 महाशक्ति पीठों में से एक है। मां दुर्गा को यहां वैष्णो देवी के रूप में पूजा जाता है। जिस पवित्र गुफा में मंदिर स्थित है, भूवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार यह लगभग एक लाख वर्ष से प्रतिष्ठापित है। माता वैष्णो देवी को महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवियों के संयुक्त अवतार के रूप में पूजा जाता है। त्रेता युग से आदिशक्ति स्वरुपा महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती पिंडी रुप में इस गुफा मे विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि माता वैष्णोदेवी ने त्रेता युग में माता पार्वती, सरस्वती एवं लक्ष्मी के रुप में मानव जाति के कल्याण के लिए अवतार लिया था। उन्होंने त्रिकुटा पर्वत पर तपस्या की थी। इसी त्रिकुटा पर्वत पर तपस्या के बाद देवी का शरीर तीन दिव्य ऊर्जाओं महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के सूक्ष्म रूप में विलीन हो गया, इसलिए पवित्र गुफा में माता तीन पींडियों के रुप में अपने शाश्वत निराकार रुप में विराजमान हैं।
हम में से अधिकांश यही जानते हैं कि माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद भैरव दर्शन कर यात्रा पूरी मानी जाती है, लेकिन यह पूरी यात्रा नहीं है। इसलिए संपूर्ण यात्रा के लिए माता वैष्णों देवी की यात्रा कोल कंडोली से शुरु करना चाहिए। उसके बाद माता वैष्णो देवी का दर्शन और फिर भैरव दर्शन करना चाहिए। तभी मां वैष्णों देवी की यात्रा पूर्ण होती है, ऐसी पुरानी मान्यता है। जम्मू से लगभग चौदह किलोमीटर दूरी पर नगरोटा नामक स्थान है जहां कोल कंडोली देवी का मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में देवी का प्रथम दर्शन करके ही माता वैष्णो देवी की यात्रा प्रारम्भ करनी चाहिए। क्योंकि यही वह स्थान है जहां से होते हुए माता वैष्णो देवी त्रिकूट पर्वत गईं थीं। माता की बारह वर्ष की तपस्या नगरोटा (कोल कंडोली) में किए जाने के कारण यात्रियों की टोलियां माता के इसी प्राचीन मंदिर में ठहरती थीं। अगले दिन भक्त स्नानादि करके मंदिर में स्थापित माता की पिंडी का दर्शन करने के बाद आगे की यात्रा शुरु करते थे। श्री वैष्णो देवी यात्रा का पहला पड़ाव होने के कारण यह स्थान कोल कंडोली पहला दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हो गया। तभी से ऐसी मान्यता बन गई कि कोल कंडोली मंदिर के दर्शन किए बिना माता वैष्णोदेवी की यात्रा संपूर्ण नहीं होती है। इस स्थान से संबंधित एक पौराणिक कथा भी है, जिसके अनुसार द्वापर युग में माता वैष्णोदेवी भगवान श्री राम की आज्ञा से पांच वर्ष की कन्या के रुप में प्रकट हुई। उसके बाद उन्होंने कटरा की ओर प्रस्थान किया था। इस लंबी यात्रा के दौरान कटरा से उत्तर दिशा की ओर नगरोटा नामक पहाड़ी गांव पहुंचीं, जिसे कोल कंडोली नाम से भी जाना जाता है। फिर इस स्थान पर बारह वर्ष तक तपस्या की और तपस्या वाली जगह पर पिंडी रुप धारण किया। पांच साल की कन्या के रुप में अवतरित माता वैष्णो देवी के साथ गांव के बच्चे भी जंगल में आकर उनके साथ खेलते थे और झूला झूलते थे। माता का झूला आज भी यहां उपस्थित है। साथ खेलते हुए बच्चों को जब प्यास लगती तो माता अपने कटोरे (कौले) को हिलाती थीं जिससे उसमें पानी आ जाता था और बच्चे अपनी प्यास बुझाते थे। आज इस पावन जगह पर पवित्र बावली है जिसमें साल भर ठंडा और मीठा पानी मिलता है। कोल का अर्थ होता है कटोरा और कंडोली का अर्थ होता है कोडिया या झूला। क्योंकि इस स्थान पर माता ने अपने कन्या अवतार में बच्चों को अपने कटोरे का पानी पिलाकर प्यास बुझाई थी और उनके साथ झूला झूला था, इसलिए इस जगह का नाम कोल कंडोली पड़ गया।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर आशीर्वाद पाने के लिए महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध में प्रस्थान करने से पहले पांडवों द्वारा माता वैष्णोदेवी की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अस्त्र शस्त्र उठाने से पूर्व देवी मां की स्तुति की थी। माता उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री वैष्णोदेवी के रुप में प्रकट हुईं। महाभारत काल के अज्ञातवास के दिनों में पांडवों ने यहां मां को प्रसन्न करने के लिए कई वर्षों तक पूजा और आराधना किया जिससे प्रसन्न होकर मां ने पांडवों को दर्शन दिए और मंदिर बनवाने के लिए कहा। इस प्रकार अज्ञात वास के दिनों में पाण्डवों ने कन्या के रुप में माता वैष्णोदेवी के दर्शन किये और माता के मंदिर का निर्माण देवी मां के प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट करने के लिए किया था, जो आज भी यहां अवस्थित है। त्रिकूटा पर्वत के ठीक बगल वाले पहाड़ पर पवित्र गुफा के सामने पाषाण की पांच संरचनाएं हैं, जिन्हें पांडवों की चट्टान का प्रतीक स्वरुप माना जाता है।
एक अन्य प्रसिद्ध पौराणिक कथा के मान्यतानुसार एक बार पहाड़ों वाली माता ने अपने एक परम भक्तपंडित श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर समाज में उनकी प्रतिष्ठा बचाई और पूरी सृष्टि को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। कहते हैं, वर्तमान कटरा कस्बे से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर रहते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी इसलिए वे नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुंवारी कन्याओं को आमंत्रण दिया। माँ वैष्णो भी कन्या वेश में उन्हीं कन्याओं के बीच आ बैठीं। पूजन के बाद सभी कन्याओं के चले जाने के के बाद माँ वैष्णो देवी वहीं रहीं और पंडित श्रीधर से बोलीं, आसपास के सभी परिचितों को अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ। श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस पास के गाँवों में भंडारे का संदेश पहुँचा दिया। इसी क्रम में लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया। भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी आश्चर्यचकित थे कि वह कौन सी कन्या है जो इतने सारे लोग को भोजन करवाना चाहती है? इसके बाद श्रीधर के घर में गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णो देवी ने एक दिव्य पात्र से सभी को भोजन परोसना शुरु किया। भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो खीर पूड़ी की जगह मांस का भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह पंडित श्रीधर के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाएगा। परंतु भैरवनाथ जानबूझकर अपनी बात पर अड़ा रहा। ऐसा कहा जाता है कि भैरों नाथ एक पहुंचा हुआ तांत्रिक था। जो भगवती की सुंदरता पर मोहित हो गया और यज्ञ में मांस एवं मदिरा की इच्छा जताने लगा था। अपनी बात बनती नहीं देखकर जब भैरवनाथ ने उस कन्या को स्पर्श करने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। तब माँ ने पहले अपने आप को इस स्थान पर पिंडी के रुप में स्थापित किया और फिर स्वयं को वायु रूप में बदल लिया और त्रिकूट पर्वत की ओर उड़ चली। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान उनके साथ थे। उस दौरान हनुमानजी को प्यास लगी और माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी पीड़ा थकान और दुःख तकलीफ दूर हो जाती हैं। उसके बाद वहीं एक गुफा में प्रवेश कर माता ने नौ माह तक तपस्या की और हनुमानजी ने पहरा दिया। पीछा करते हुए भैरव नाथ वहां भी आ पहुंचा। उस समय एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है, इसलिए उस महाशक्ति का पीछा करना छोड़ दे। भैरवनाथ ने साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। यह गुफा आज भी अर्द्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। अर्द्धकुमारी के पहले माता की चरण पादुका भी है। यह वह स्थान है, जहां माता ने भागते-भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था। अंत में गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया और भैरवनाथ को वापस जाने का कह कर त्रिकूटा पर्वत की ओर चल पड़ीं और उसके बाद उस पर्वत की गुफा को अपना निवास स्थान बनाया। लेकिन भैरवनाथ नहीं माना और गुफा में प्रवेश करने लगा। यह देखकर माता की गुफा के बाहर पहरा दे रहे हनुमानजी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा और दोनों का युद्ध प्रारंभ हो गया। युद्ध का कोई अंत नहीं देखकर माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का वध कर दिया। कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने मां से क्षमादान की भीख मांगी। माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की मुख्य इच्छा मोक्ष प्राप्त करने की थी। तब उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान किया, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे, जब तक कोई भक्त, मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा। इसके बाद माता वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं।
भवन ही वह स्थान है जहां माता ने भैरवनाथ का वध किया था। वध होने के बाद भैरोनाथ का सिर साढ़े तीन किलोमीटर दूर भैरो घाटी में जाकर गिरा और उसका धड़ (शरीर) प्राचीन गुफा के सामने रह गया। जिस स्थान पर भैरोनाथ का सिर गिरा था उस स्थान पर भैरवनाथ का मंदिर है। वैष्णो देवी गुफा में एक बड़ा चबूतरा बना हुआ है। इस चबूतरे पर माता का आसन है जहां देवी त्रिकुटा अपनी माताओं के साथ विराजमान रहती हैं। अर्थात इसी स्थान पर मां काली दाहिनी ओर, माँ सरस्वती बीच में और माँ लक्ष्मी बायीं तरफ पिंडी के रूप में गुफा में विराजित हैं। इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रुप कहा जाता है। इन तीन भव्य अलौकिक पिंडियों के साथ उनके परम भक्तों एवं श्रद्धालुओं और जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व नृपों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ एवं यन्त्र यहां शोभा पा रहे हैं।
इस बीच ग्रामवासियों को भोजन पर आमंत्रित करने वाले पंडित श्रीधर अधीर हो गए। जब उनके धैर्य का बांध टूट गया तब वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जैसे उनके स्वप्न में मार्गदर्शन मिला था। इस प्रकार अंत में वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे। तत्पश्चात पंडित श्रीधर ने कई विधियों से माता की पिंडियों की विधिवत पूजा की और ऐसा करना उनके दिनचर्या का हिस्सा बन गई। एक दिन देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं। वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी माता वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं। भौतिक रुप से इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल न्यास द्वारा की जाती है। अलौकिक रुप से माता वैष्णो देवी के प्रहरी भगवान शंकर के अवतार हनुमान जी हैं। माता की रक्षा करने के लिए हनुमान जी के साथ भगवान शिव के ही अवतार भैरव बाबा भी हैं। हमारे देश के तीर्थस्थल भारतीय संस्कृति और परंपरा के वाहक हैं। इनकी दिव्यता और भव्यता अद्भुत अनुभव दिलाते हैं।