Monday, November 18, 2024
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मेरे सिर से बरगद की छाँव चली गई: डाॅ आशा सिंह सिकरवार

डाॅ आशा सिंह सिकरवार
लोक चिंतन पत्रिका ब्यूरो चीफ गुजरात
साहित्यिक टीवी दिल्ली गुजरात ब्यूरो चीफ
विश्व हिन्दी शोध संवर्धन अकादमी गुजरात अध्यक्ष

वरिष्ठ साहित्यकार (ग़ज़लकार, गीतकार) कृष्ण बक्षी जी का निधन 23 नवंबर 2023 को भोपाल में हुआ। 15 नवंबर 1942 को राधाकृष्ण पुरम, गंजबासौदा, विदिशा में जन्मे कृष्ण बक्षी जी के निधन की खबर मिली, तब विश्वास नहीं हुआ।

चलते फिरते, बातचीत करते हुए वे चुप हो जाएंगे। उनकी तबियत कई महीनों से खराब चल रही थी पर कभी उदास नहीं देखा, न तबियत का जिक्र ही करते थे। पता नहीं इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति कहाँ से जुटा लेते थे कि जब सुबह होती तो हम एक प्रसन्नचित्त व्यक्तित्व से मिलते। अक्सर उनसे फोन पर बात होती रहती साहित्य जगत से तमाम शिकायतें के बावजूद उन्होंने कभी अपने लेखन का ढंग नहीं बदला। न रास्ते बदले। अकेले चलने का साहस किसी विरले में ही होता है।

उनके निधन की खबर देर से मिली, पर जिसने भी सुना सन्न रह गया। हमारे बीच से इतनी जल्दी चले जाएंगे, कभी सोचा भी नहीं था। फेसबुक पर सभी साहित्यकारों के साथ बेहद आत्मीयता भरे संबंध थे। मेरे साथ पिता पुत्री जैसा एक निर्मल रिश्ता होने के साथ ही फेसबुक साहित्यिक मित्र भी थे। उनके सानिध्य में बड़े साहित्यकार मित्रों के स्मरण भी सुनने मिले। बीच बीच में उस दौर की साहित्यिक झाँकियाँ भी मिली। जिससे मुझे यह अनुमान हो चला था कि साहित्य की डगर कठिन है और कदम कदम पर चुनौतियां का सामना करना पड़ेगा, पर कभी निराश नहीं होना है।

मैंने क्या खोया है शब्दों में कहना मुश्किल है, उनके स्नेह की छाँव मुझे मिली मेरा सौभाग्य है। मेरे सिर से एक बरगद की छाँह चली गई। मेरी साहित्यिक लड़ाइयों में निडर होकर मेरे साथ खड़े रहे। एक व्यक्ति के रूप में वे सचमुच बड़े व्यक्ति थे, साहित्य लिखना अलग बात है परन्तु साहित्यिक हो जाना, अपने व्यक्तित्व को बड़ा फलक देना है। अब बहुत कम लोग हैं जो असाधारण व्यक्तित्व रखते हुए साधारण जीवन में रचे बसे हैं कभी बड़े साहित्यकार होने का गुमान नहीं पाला उन्हीं में से एक थे कृष्ण बक्षी जी। दुष्यंत कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी ग़ज़लों को व्यापक फलक दिया। जन-जीवन के दुख को अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया।

कृष्ण बक्षी जी के निधन से जो क्षति साहित्य जगत को हुई है वह अपूरणीय है। मैंने कृष्ण बक्षी जी के दोनों ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा लिखी है, इसलिए उन्हें नजदीक से सिर्फ जाना ही नहीं बल्कि उन्हें डूबकर पढ़ने का अवसर भी मिला। उनकी ग़ज़लें जन जीवन से बहुत गहराई से जुड़ी हैं।

सामाजिक सरोकारों की ग़ज़लें सदैव युवापीढ़ी को दिशा निर्देश करती रहेंगी। वहीं उनके गीत ग्रामीण संवेदना से ओत-प्रोत हैं। सामाजिक चिंतन बहुत गहनता से उनके लेखन में उतरा।

फेसबुक पर हर वर्ग के पाठक के साथ वे जुड़े रहे। उनकी कलम कभी रुकी नहीं। अपने लेखन के प्रति बहुत ईमानदार थे, निडर, साफगोई, स्पष्ट विसंगतियों पर प्रहार करते। सम्मान पत्रों या पुरस्कार की कतार में मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। यही प्रतिबद्धता उन्हें सदा जीवंत  रखेगी।

हजारों स्त्रियों से जुड़े ही नहीं बल्कि उनके लेखन को सराहते, प्रोत्साहित करते। उनकी कविताओं को बहुत गंभीर से समझते थे समीक्षा लेख लिखते। न जाने कितनी ही स्त्रियों को लिखने के लिए प्रेरित किया होगा प्रेरणात्मक रहे होंगे। अपने पीछे एक पूरी पीढ़ी साहित्य के लिए तैयार करके छोड़ गये उनका ये योगदान साहित्य जगत के लिए महत्वपूर्ण है।

इतना ही नहीं जहाँ बोलना है वहाँ कभी नहीं चूकते थे। मेरी कविता पढ़ने के लिए उनकी उत्सुकता और उस पर धीर गंभीर समीक्षात्मक टिप्पणी मिलती। मेरी कविताओं पर एक विस्तृत लेख मेरे विशेषांक के लिए निर्दलीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ। 

पहले दिन फेसबुक पर आई उनसे मिली पिछले सात साल का साथ जीवन की अमूल्य निधि  के रूप में सदैव मेरे साथ रहेगा है। उनका एक शेर इस वक्त जेहन में कौंध रहा है-

”जगेगी तो माँगेगी उत्तर वो तय है
जो सोई है मुझ में सवालों की दुनियाँ”

हम सब की तरफ़ से भावभीनी श्रद्धांजलि

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