नुक्कड़ शब्द कितना प्रिय लगता है न… नुक्कड़ नाटक, नुक्कड़ गली, नुक्कड़ सड़क। शाब्दिक अर्थ में किसी गली या मार्ग का वह सिरा जहाँ कोई मोड़ पड़ता हो, मोड़, नाका, कोना, सिरा,नोक की तरह आगे निकला हुआ सिरा इत्यादि।
अब किसी की दुकान या मकान नुक्कड़ में हो तो वो अपने आपको बादशाह से कम नहीं समझता। नुक्कड़ प्रिय ही बहुत होता है…. ध्यान से देखें तो इन नुक्कड़ों में ही कई जिंदगियाँ देखने को मिलती है.. सबसे ज़्यादा फ़ैशन में नुक्कड़ की चाय होती है।
कुछ हो न हो राहगीर को कोई पता पूछना हो तो नुक्कड़ के राम जी से पूछ लेना… वो जो नुक्कड़ में चाय वाला है न बहुत भीड़ मिलेगी.. बस बस वहीं दो मकान छोड़ कर मेरा घर है.. कहते हुए मिलेंगे… मोहल्लों का बड़ी बड़ी इमारतों का, सबका मुख्य पता नुक्कड़ से होकर ही गुजरता है… आए गए नुक्कड़ की चाय हो जाती है। यार शाम को मिलते हैं.. चाय भी हो जाएगी और बातें भी।
बड़े बड़े मसले दुनिया भर की चर्चा घर चौकर की बातें सब कुछ एक कप चाय की प्याली या ग्लास की चुस्कियों में पूरी हो जाती हैं। हाँ पास ही अख़बार पड़ा हो तो बड़ी शिद्दत से ध्यान मग्न होकर पूरा अख़बार पढ़ लिया जाता है। आते जाते सबको अपनी आँखों से जाँच लेते हैं, कौन क्या है कैसा है….बहरहाल चाय की संस्कृति भारत में सबसे अनूठी है, एक 10 रुपए की चाय में हम सब कुछ पाना चाहते हैं, कड़क हो, अदरक वाली, तुलसी, मसाला ठोक के, पत्ती कम दूध ज़्यादा, राढ़ के देयीं यार.. सारे वाक्य विन्यास हमारी संस्कृति के ही बनाये हुए हैं।
ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदों द्वारा लगाए गए चाय के पौधे उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में इतने प्रसिद्ध हो जाएँगे क्या पता था… अब शिराओं में रक्त नहीं, नवयुवकों से लेकर प्रौढ़ तक में चाय एक संस्कृति की तरह बहती है…चाय इश्क़ है, नशा है, आदत है, चाय नहीं तो मेहमाननवाज़ी पूर्ण नहीं होती।आथित्य का स्टैटस सिम्बल है चाय।
अगर कहीं सबसे ज़्यादा चाय प्रसिद्ध है टीचिंग में चाय, बिना दिन शुरू ही नहीं होता, अकेले हों तो दिन दो कप, मित्रगण हों तो यही दिन भर के 6 हो जाते हैं…लेक्चर शुरू होने में 5 मिनट हैं… तब तक चाय ही हो जाए… क़दम स्वतः ही कैंटीन की ओर रुख़ कर पड़ते हैं… पहला घूँट ऐसा लगता है कि उस समय मुखारविंद से सरस्वती ही निकलती है। दिल दिमाग़ एक होकर दात दिए बिना नहीं रहते… महाविद्यालय में अरुण जी और ओमप्रकाश जी दोनों ही चाय जब परोसते हैं… तो हृदय अभिभूत हो जाता है।मुझे कुल्हड़ में और काँच ग्लास में चाय पीना अधिक पसंद है।
लॉकडाउन में नुक्कड़ बहुत मिस किए थे… गाँव में जैसे चौपाल प्रसिद्ध हैं, तो शहरों में नुक्कड़। चाय और चाय के शौक़ीन बहुत मिलेंगे नज़र से ढूँढो तो क्या नहीं मिलता। अब चाय के अपने पेटेंट हैं। अब बड़े बड़े चायोस खुल गए हैं…पर अपनापन नुक्कड़ की चाय में ही मिलता है।
आज चाय पेय नहीं है बल्कि यह प्यार है, अब जैसे ट्रेण्ड चलता है, चाय में भी विविधताएँ आ गयी हैं। किसी को बेड टी पसंद है तो किसी को अखबार पढ़ते वक्त चाय पीना पसंद है, लगभग 80% लोग ऐसे है जिनकी सुबह चाय के बिना अधुरी रह जाती है। वैसे तो चाय के प्रकार बहुत से है, ग्रीन टी, ब्लैक टी, लेमन टी और भी कई अन्य किस्म की चाय दुनिया मे आपको पीने को मिल जाएंगी।
बहरहाल…
महाराज कृष्ण संतोषी लिखते हैं-
चाय पीते हुए मुझे लगता है..
जैसे पृथ्वी का सारा प्यार मुझे मिल रहा होता है!
कहते हैं बोधिधर्म की पलकों से उपजी थीं चाय की पत्तियां…
पर मुझे लगता है भिक्षु नहीं प्रेमी रहा होगा बोधिधर्म,
जिसने रात-रात भर जागते हुए रचा होगा आत्मा के एकान्त में
अपने प्रेम का आदर्श!
मुझे लगता है दुनिया में कहीं भी जब दो आदमी मेज के आमने-सामने बैठे
चाय पी रहे होते हैं तो वहां स्वयं आ जाते हैं तथागत
और आसपास की हवा को मैत्री में बदल देते हैं!
आप विश्वास करें या नहीं
पर चाय की प्याली में दुनिया को बदलने की ताकत है…।
डॉ संगम वर्मा
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
पीजीजीसीजी- 42