1919 की 13 अप्रैल को बैसाखी थी। रविवार का दिन था। रौलेट एक्ट के विरोध में सारे देश में प्रदर्शन हो रहे थे। उसी शृंखला में, जालियांवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई थी। बैसाखी और छुट्टी के कारण, अमृतसर के आजू-बाजू के लोग भी जालियांवाला बाग पहुंच रहे थे। धीरे-धीरे यह संख्या पांच हजार तक पहुंच गई। मैदान में भाषण चल रहे थे और लोग शांति से बैठ कर उन्हे सुन रहे थे। लोगों में बच्चे, बूढ़े, महिलाएं… सभी थे. वातावरण में कही कोई उत्तेजना या असंतोष नहीं था।
तभी अचानक ब्रिटिश सेना का एक अधिकारी, ब्रिगेडियर जनरल एडवर्ड डायर (मूलतः वह कर्नल था. किन्तु अस्थायी रूप से उसे ब्रिगेडियर का पद दिया गया था), हथियारों से सुसज्जित अपनी फौज लेकर मैदान में घुस गया। उसने अपने साथ 2 तोपें भी लाई थी, किन्तु जालियांवाला बाग के आसपास की गलियां सकरी होने के कारण वे तोपें मैदान में नहीं आ सकी।
सारे सैनिक मैदान के अंदर आते ही, बिना किसी सूचना दिए, बिना चेतावनी के, जनरल डायर ने शांति से भाषण सुन रहे उन निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाने के आदेश दिये और सारा परिसर गोलियों की आवाज से, उन निरीह और मासूम नागरिकों की चीख-पुकार से थर्रा उठा।
यह इतिहास का शायद सबसे बड़ा हत्याकांड था। सबसे नृशंस, सबसे जघन्य और सबसे बिभत्स भी! हाथों में आग निकलती बंदुके लिए सैंकड़ों सैनिक और सामने निहत्थे, निरीह, निरपराध नागरिक। उन्हे गोलियों से निर्ममता पूर्वक भूना जा रहा था, मानो मच्छर-मख्खी मार रहे हो। मात्र 150 यार्ड से भी कम दूरी से, गोलियां खत्म होने तक गोलीबारी करने के आदेश थे। विश्व की सारी क्रूरता, सारी पाशवीकता, सारी नृशंसता यहां पर उतर आई थी।
शशि थरूर ने ‘An Era of Darkness’ में लिखा हैं, “इस गोलीबारी के संबंध में कोई पूर्वसूचना नहीं दी गई। जमा हुई भीड़ को ‘यह गैरकानूनी हैं’ ऐसा भी नहीं बताया गया। उस भीड़ को शांतिपूर्ण ढंग से मैदान खाली करने के लिए भी नहीं कहा गया। जनरल डायर ने अपने सैनिकों को हवा में गोली चलाने अथवा लोगों के पैरों पर गोली मारने के लिए भी नहीं कहा था। सैनिकों को मिले आदेशानुसार, उन्होने उन निहत्थे और असहाय लोगों के छाती पर, चेहरे पर दनादन गोलियां दागी।
जख्मी नागरिक तड़पते रहे, पर उन्हे कोई सहायता नहीं मिली। अमृतसर में 24 घंटों का कर्फ़्यू लगाया गया, ताकि कोई भी नागरिक इन जख्मी लोगों की सहायता के लिए आगे ना आ सके। इस कर्फ़्यू का कठोरता से पालन कराया गया। खून के तालाब में पड़े, कराहते जख्मी लोगों को तड़पने के लिए अंग्रेजों ने छोड़ दिया था।
कुल 1650 राउंड की फायरिंग हुई। अधिकृत आंकड़े बताते हैं की 379 लोगों की मौत हुई। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 हुतात्माओं की सूची हैं। किन्तु गैर सरकारी आकड़ों के अनुसार 1000 से भी ज्यादा लोग इस हत्याकांड में मारे गए। 2000 से भी ज्यादा लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए।
जिन्हे ‘न्यायप्रिय’ होने का तमगा दिया गया था, ऐसे अंग्रेजों ने इस जघन्य हत्याकांड का खुले आम समर्थन किया। जनरल डायर, रातोंरात इंग्लंड में हीरो बन गया।
जनरल डायर के इस करतूत पर इंग्लैंड के दोनों सदनों में चर्चा हुई। हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने उसे पूर्णतः दोषमुक्त करार दिया। हाउस ऑफ कॉमन्स ने बस एक छोटी सी टिप्पणी कर के इतिश्री कर दी। जनरल डायर को मोटी पेंशन मंजूर की गई। जिस ‘मोगली’ के जनक, नोबल पुरस्कार विजेता, रुडयार्ड किपलिंग को हम सर पर उठाएं रहते हैं, उस किपलिंग ने जनरल डायर का गौरव करते हुए उसे ‘भारत को बचाने वाला आदमी’ कहा।
मामला इतने पर नहीं रुका….
भारत में रह रहे अंग्रेज़ अधिकारियों को, जनरल डायर का यह गौरव पर्याप्त नहीं लगा। उन्होने एक मुहिम छेड़कर, जनरल डायर की क्रूरता का सम्मान करने के लिए, निधि संकलन प्रारंभ किया। उन्होने भारी सी रकम इकठ्ठा की- 26,317 पाउंड, 1 शिलिंग, 10 पेन्स. यह रकम उन दिनों चौकाने वाली थी। आज के हिसाब से वह ढाई लाख पाउंड (अर्थात ढाई करोड़ रुपये) होती हैं। इस मोटी रकम की थैली, बर्बरता के सरताज, जनरल डायर को, हीरे लगी हुई तलवार के साथ, ससम्मान भेंट की गई।
और अनेक महीनों की न्यायिक लड़ाई लड़ने के बाद, जालियांवाला बाग हत्याकांड के मृत लोगों के परिजनों को, अंग्रेज़ सरकार ने, बड़ी दरियादिली दिखाते हुए, हर एक मृत व्यक्ति के लिए 37 पाउंड दिये!
(डॉ प्रशांत पोळ की पुस्तक ‘विनाशपर्व’ के अंश)