सुजाता प्रसाद
स्वतंत्र रचनाकार
शिक्षिका सनराइज एकेडमी
नई दिल्ली, भारत
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दीपावली पर्व मनाए जाने की परंपरा है।आलोक पर्व दीपावली वैज्ञानिकता और आध्यात्मिकता का संगम है। भारत में होने वाले अनेक त्योहारों में दीपावली का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। दीपावली के साथ हमारा भारतीय समाज प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है और इसकी महत्ता आज भी बनी हुई है। आज से हजारों वर्ष पहले दीपोत्सव दीपावली का प्रचलन ऋतु पर्व के रूप में शुरु हुआ था। क्योंकि इस समय तक शारदीय फसल, विशेषकर चावल की बालियां पककर घरों में आ जाती थी। घर अन्न भंडार और धन-धान्य से भर जाते थे। वहीं रुई कपास जैसे व्यवसायिक फसल के तैयार हो जाने से वर्ष भर के लिए वस्त्रों के प्रबंध हो जाने की पूर्ण संभावना बन जाती थी। इसलिए जन मानस के हृदय में उल्लास और उत्साह का संचार होता था, आनंद की इस स्थिति में भावविभोर होकर ईश्वर को अपना आभार व्यक्त करने के लिए दीपावली पर्व को मनाना प्रारंभ किया गया। कालांतर में जैसे-जैसे समय बीतता गया अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं दीपावली से जुड़ती चली गईं। स्कंध पुराण, पद्मपुराण, भविष्य पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में इस पर्व के संबंध में अनेक विवरण एवं कई मान्यताएं मिलती हैं।
जैसे महाराज पृथु द्वारा अन्न धन की प्रचुर उपलब्धि और धन प्राप्ति के साधनों के नवीकरण द्वारा उत्पादन शक्ति में विशेष वृद्धि होने के बाद भारत को समृद्ध तथा सुखी बना देने की खुशी के उपलक्ष्य में दीपों के प्रज्वलित करने का प्रचलन शुरु हुआ, ऐसा वर्णित है।
दूसरी प्रथा के अनुसार आज के दिन समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी के अवतरित होने के उपलक्ष्य में इस उत्सव को मनाए जाने का उल्लेख मिलता है।
एक और पौराणिक गाथा के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को दुष्ट अत्याचारी शासक नरकासुर का वध करने के बाद उसके बंदी गृह से अनेक राजाओं और सोलह हजार राज कन्याओं का उद्धार करने पर भगवान श्री कृष्ण का अभिनंदन करने के लिए भयमुक्त जनता ने चतुर्दशी के अगले दिन अमावस्या को दिवाली मनाई थी।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत के आदि पर्व में पांडवों के तेरह वर्ष के अज्ञात वनवास से लौटने पर प्रजा द्वारा उनके स्वागत में नगरों को सजाकर तथा दीपों की अवली प्रज्वलित कर उत्सव मनाने का भी उल्लेख मिलता होता है।
जन प्रचलित कथा के अनुसार भगवान श्रीराम के लंका विजय के बाद माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ चौदह वर्षों के कठिन वनवास पूरा होने के बाद अयोध्या नगरी को जन जन ने रंग बिरंगे पताकाओं से सजाकर, दीपों को प्रज्ज्वलित कर भगवान श्री राम का आनंद विभोर होकर स्वागत किया। उनके आगमन की खुशी में पूरी अयोध्या नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया था। खुशी के पर्व के रुप में धूमधाम से दीपावली मनाई गई थी। उसी स्वर्णिम पल को जीवन्त करने हेतु आज भी घर-घर में दीपक जला कर दीपावली का पर्व मनाया जाता है।
समस्त भारत में सनातन धर्म को मानने वाले इस प्रकाश पर्व को उल्लास और उत्साह के साथ मनाते हैं। हर तरफ एक नया उत्साह, नई उमंग, नई ऊर्जा, और प्रसन्नता का संसार बिखरा रहता है। पर्व के आने से लगभग एक माह पूर्व से साफ सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है और लोग अपने घरों को सजाने संवारने में लग जाते हैं। अमावस्या की रात्रि में इलेक्ट्रिक लड़ियों एवं असंख्य दीपों की उज्जवल ज्योति से घरों को जगमग किया जाता है। सभी प्रसन्न होकर भगवान गणेश और भगवती मां लक्ष्मी की उपासना करते हैं और दीप आलोकित कर उनके आगमन की प्रार्थना करते हैं। दीपावली पर्व का एक उद्देश्य देश के स्वास्थ्य के प्रति भी सजग करना है। वर्षा ऋतु में धूप की कमी तथा शुद्ध जल के अभाव के कारण वायुमंडल में अनेक कीटाणु पनप जाते हैं। मच्छरों की अधिकता से इस ऋतु में ज्वर, मलेरिया आदि रोग विशेष रूप से फैलते हैं। कार्तिक ऋतु में, शरद ऋतु अपने पूर्ण विकास पर होती है। वहीं वातावरण में फैले हुए स्वास्थ्य को नुक्सान पहुंचाने वाली समस्याओं और कारणों को दूर करने के लिए लोग अपने घरों की साफ़ सफाई करते हैं, जिससे घरों में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार होता है। निवास स्थान के प्रत्येक भाग को दीपों द्वारा आलोकित किया जाता है। दीपक का प्रकाश तथा उष्णता, वर्षा जनित रोग और उससे पनपे कीटाणुओं के विनाश में कारगर सिद्ध होते हैं। दीपावली का पर्व पर्यावरण को स्वच्छ रखने का भी संदेश देता है।
पारंपरिक पर्व दीपावली पूरे पांच दिन का सामाजिक और पारिवारिक त्योहार है क्योंकि यह पर्व त्रयोदशी से प्रारंभ होकर शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक मनाया जाता है।
त्रयोदशी को वैद्य धन्वंतरि का पूजन कर अपने और परिवार के लिए स्वास्थ्य एवं समृद्धि की कामना की जाती है। भगवान धनवंतरी मानव के अच्छे स्वास्थ्य और रोगों के निवारण के लिए अमृत कलश लिए हुए समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए थे। उन्होंने संसार में आयुर्वेद विद्या का प्रचार प्रसार कर सभी प्राणियों पर बहुत बड़ा उपकार किया है। भगवान धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी भगवान धनवंतरी का जयंती दिवस है, इसलिए इस दिन को धन्वंतरि त्रयोदशी भी कहते हैं। इस दिन शाम के पूजन के समय मुख्य द्वार पर तेल का दीपक जलाकर यमराज के निमित्त रखा जाता है।
धनतेरस का पर्व धन और आरोग्य से जुड़ा हुआ है। इसलिए धन के लिए इस दिन कुबेर की पूजा की जाती है और आरोग्य के लिए धनवन्तरि की पूजा की जाती है। इस दिन मूल्यवान धातुओं, नए बर्तनों और आभूषणों की खरीदारी करने का विधान है। धनतेरस पर वाहन, घर, संपत्ति, सोना, चांदी, बर्तन, कपड़े, धनिया, नमक, झाड़ू आदि खरीदने का महत्व है।
धनतेरस के अगले दिन नरक चतुर्दशी या रुप चौदस का पर्व आता है जिसे छोटी दीवाली के रूप में मनाया जाता है। यह दिन राक्षस नरकासुर पर भगवान श्री कृष्ण की जीत की खुशी में मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण की उपासना की जाती है। भारत की सांस्कृतिक परंपराएं वैज्ञानिकता के आधार पर मनाई जाती हैं। नरक चतुर्दशी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध करके संसार को भयमुक्त किया था। इस प्रसन्नता को प्रकट करने के उपलक्ष्य में यह पर्व मनाया जाने लगा ऐसा पुराणों में उल्लेख मिलता है।
पर्व के तीसरे दिन को बड़ी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सुख समृद्धि की देवी मां लक्ष्मी एवं बुद्धि और ज्ञान के देव श्री गणेश जी के पूजन अर्चन का विधान है। खुशी के इस उत्सव पर जगमग जगमग जलते हुए दीपक अंधकार को दूर कर जीवन में आशा एवं प्रसन्नता का संचार करते हैं। हमें सुखमय जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। इस दिन बच्चे बड़े सभी नए कपड़े पहनते हैं, पकवान और मिठाइयां खाते हैं और विभिन्न प्रकार की फुलझड़ी और पटाखे जला कर अपनी खुशियां मनाते हैं।
दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के अतिरिक्त व्यापारी वर्ग द्वारा अपने बही खातों में आय-व्यय रजिस्टर इत्यादि के पूजन की भी प्रथा है। भारतीय अर्थ व्यवस्था की पद्धति के अनुसार यह हमारे आर्थिक वर्ष का प्रथम दिन होता है। इस दिन वे अपने पिछले वर्ष के समस्त आय व्यय तथा हानि लाभ आदि का गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करते हैं और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण निर्णय भी लेते हैं। इस प्रकार कह सकते हैं यह पावन पर्व आर्थिक प्रगति के निरीक्षण का भी दिन है।
दीपावली पर्व की श्रृंखला में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को चौथे दिन गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है, इस दिन को अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है। इस पर्व में विभिन्न तरह के व्यंजन बनाकर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित किये जाते हैं। वर्णित मान्यताओं के अनुसार ऐसा भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की तलहटी में रहने वाले ब्रज के निवासियों के उद्धार और कृषि संसाधनों के नवीनीकरण के उद्देश्य से हुआ था। इस पर्व के प्रारंभ होने से पहले ब्रजवासी देव आधारित थे। अन्न उपजाने के लिए वे सिर्फ वर्षा पर निर्भर रहते थे। ऐसे में वृष्टि, अतिवृष्टि और अनावृष्टि सभी परिस्थितियों में वहां की जनता इंद्र की उपासना किया करती थी। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण गोकुल वासियों की क्रोधित देवराज इंद्र के द्वारा की गई भयंकर बारिश से रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठाकर सात दिनों तक बारिश का सामना करते रहे थे। अंततः इंद्र को हार मानकर बारिश बंद करनी पड़ी। अतः यह पर्व अहंकार पर श्रद्धा एवं विश्वास की विजय के रूप में मनाया जाता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोवर्धन पूजा जैसे पर्वों की अत्यंत आवश्यकता है। इस दिन हमें अपने राष्ट्र की पृथ्वी और गाय दोनों की रक्षा करना चाहिए। इनकी उन्नति के लिए इनका संवर्धन करना चाहिए और हमें हमेशा इनके संरक्षण के लिए संकल्प लेना चाहिएl
दीपावली के पांचवें दिन भाई-बहन के प्रेम के बन्धन को समर्पित भाई दूज का पर्व मनाया जाता है, इस दिन बहनें अपने भाइयों को टीका करती हैं, आरती उतारती हैं और उनके सुख समृद्धि की कामना करती हैं। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाया जाने वाला पर्व भ्रातृ द्वितीय या भैया दूज के नाम से जाना जाता है। यह हिंदू समाज का एक आदर्श पारिवारिक पर्व है। इस दिन का मुख्य महत्व मृत्यु के देवता यमराज और उनकी बहन यमुना नदी के प्रेम की कहानी है। पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान यम अपनी बहन यमुना के यहां मिलने जाया करते हैं और उन्हीं के अनुकरण पर इस दिन भाई अपनी बहनों से मिलते हैं और उनकी इच्छानुसार सम्मान पूजा आदि करके उनसे आशीर्वाद रूप में माथे पर तिलक करवाते हैं। कहा जाता है ऐसा करने से मृत्यु का भय नहीं रहता है।
इसके बाद पांच दिवसीय इस महान पर्व का समापन हो जाता है। दीपावली प्रेम, एकता एवं सौहार्द का संदेश देती है साथ ही सम्पूर्ण समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर जाने और एकजुट होकर साथ रहने की भी प्रेरणा देती है।