1857 की महान क्रांति, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी गई हैं, के बाद भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अहम् कड़ी साबित हुआ। यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही हैं कि ऐसी कौन सी विकट स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिस कारण युद्ध काल में कांग्रेस को, जो फासिस्ट शक्तियों के खिलाफ थी, युद्ध स्थिति का सामना कर रही अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
दरअसल सितंबर,1939 में नाजी जर्मनी का पौलेंड पर आक्रमण के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं केंद्रीय विधानमंडल के सदस्यों से परामर्श किए बिना ही भारत को युद्ध की आग में झोंक दिया। कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से युद्ध में सहयोग के लिए यह मांग रखी कि या तो भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र घोषित किया जाए या फिर फौरन वास्तविक शक्ति भारत के हाथों में सौंप दें। परंतु ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की इस मांग को अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश सरकार के इस निरंकुश कदम का विरोध करते हुए कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया।
स्थिति को भांपते हुए महात्मा गांधी ने अक्टूबर, 1940 में व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। इसमें पहले सत्याग्रही थे- विनोबा भावे और दूसरे पंडित जवाहरलाल नेहरू। इस आंदोलन के उद्देश्यों की व्याखा करते हुए गांधी जी ने वाइसराय के नाम एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कांग्रेस भी नाजीवाद की उतनी ही विरोधी हैं जितना कोई अंग्रेज हो सकता है।
इस पत्र में उन्होंने लिखा कि अंग्रेजी सरकार इस बात में गलतफहमी का ही अधिक शिकार हैं कि भारत की जनता स्वेच्छा से युद्ध में सहयोग कर रही है जबकि वास्तविक स्थिति यह हैं कि आम भारतीय जनमानस नाजीवाद और भारत पर शासन कर रही दोहरी निरंकुशता में कोई अंतर नहीं करता है। 25 मई, 1941 तक 25 हजार तक सत्याग्रही गिरफ्तार किए गए थे। मौटे तौर पर व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे – पहला, भारतीय जनता में राजनीतिक चेतना की अभिव्यक्ति। दूसरा, ब्रिटिश सरकार को भारतीयों के हाथों में वास्तविक शक्ति सौंपने का एक और मौका देना।
22 जून, 1941 को नाजी जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला बोल दिया। 7 दिसंबर को जापान ने अचानक पर्ल हार्बर में एक अमेरिकी समुद्री बेड़े पर हमला कर दिया और वह इटली एवं जर्मनी की ओर से युद्ध में शामिल हो गया। मार्च, 1942 में जापान ने रंगून पर अधिकार जमा लिया और अब इस बात में कोई संदेह शेष नहीं रह गया था कि युद्ध भारत की सीमाओं तक पहुँच गया है।
इस पर कांग्रेस ने एक बार फिर ब्रिटिश सरकार के सम्मुख वही सब मांगे प्रस्तुत की जो उसने युद्ध के आरंभ होने पर पेश की थी। दूसरी ओर जब युद्ध में मित्र राष्ट्रों की स्थिति बिगड़ने लगीं तो अमेरिका एवं चीन ने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर दबाव डाला कि वह युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करें। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने मार्च, 1942 में कैबिनेट मंत्री स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल भारत भेजा। क्रिप्स लेबर पार्टी के सदस्य और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के हिमायती थे।
भारत आते ही उन्होंने घोषणा की थी कि भारत में ब्रिटिश सरकार की नीति का उद्देश्य यहां जितनी जल्दी संभव हो स्वशासन की स्थापना करना था, परंतु क्रिप्स और कांग्रेसी नेताओं के बीच कोई समझौता नहीं हुआ और आखिरकार बातचीत टूट गई। जैसे-जैसे जापानी फौजें भारत की ओर बढ़ती गई, भारतीय नेताओं को देश पर जापानी आक्रमण का खतरा मंडराने लगा एवं उन्हें आमजन की सुरक्षा की चिंता सताने लगीं।
अप्रैल, 1942 में गांधीजी ने कहा कि अंग्रेज भारत से सुव्यवस्थित ढंग से चले जाए। उनका मानना था कि अब अंग्रेजों और भारतीयों की भलाई इस बात में हैं कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाए। इस प्रकार भारत छोड़ो का नारा प्रसिद्ध हो गया। गांधीजी ने सीधे तौर पर कहा कि भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति जापानियों को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण है।
उन्होंने विभिन्न भारतीय राजनीतिक दलों के बीच ब्रिटेन की मध्यस्थता की भूमिका को खत्म करते हुए कहा था कि भारत को ईश्वर के हाथों में या अराजकता में छोड़ दो। तब सभी दल कुत्तों की भांति लड़ेंगे और जब वास्तविक उत्तरदायित्व सिर पर पड़ेगा तो स्वयं वास्तविक समझौता कर लेंगे। 14 जुलाई, 1942 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने अंग्रेजों के भारत से चले जाने का प्रस्ताव किया और कहा कि यदि यह अपील स्वीकृत नहीं होती तो हम लोग महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने के लिए बाध्य हो जाएंगे।
8 अगस्त, 1942 को बम्बई में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए यह कहा गया कि भारत में अंग्रेजी राज्य की समाप्ति भारत एवं संयुक्त राष्ट्र दोनों के हित में है। इस राज्य का बने रहना भारत के लिए अपमानजनक हैं और उसे दिन प्रतिदिन क्षीण कर रहा है।
ठीक इसी दिन आधी रात में कांग्रेसी प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता के संबंध में अपना मत प्रकट करते हुए कहा था कि वह पूर्ण स्वाधीनता से कम किसी चीज से संतुष्ट होने वाले नहीं है। अपने इस संबोधन में उन्होंने देश की जनता को करो या मरो का मंत्र देते हुए यह वचन दिया कि हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इस प्रयास में मारे जाएंगे।
ब्रिटिश सरकार गांधीजी की इस हुंकार से इतनी अधिक भयभीत हो गई कि 9 अगस्त की सुबह आंदोलन शुरू होने से पूर्व ही गांधीजी और दूसरे अन्य कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करके उन सभी को विभिन्न अज्ञात स्थानों पर भेज दिया जाएगा। कांग्रेस को प्रतिबंधित संस्थाओं की सूची में डाल दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को शुरू होने से पूर्व ही कुचलने का भरपूर प्रयास किया परंतु वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में पूरी तरह असफल साबित हुई और भारत छोड़ो आंदोलन नेतृत्वविहीन होकर भी स्वत: स्फूर्त आंदोलन एवं जनक्रांति में परिणत हो गया।
ब्रिटिश सरकार की इन दमनात्मक कार्रवाईयों की पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। जगह जगह स्कूल, काॅलेज, कारखाने, सरकारी कार्यालयों में हड़तालें और प्रदर्शन हुए और लाठीचार्ज एवं गोलीबारी की अनेक घटनाएं सामने आयी। सरकार के बर्बरतापूर्ण दमन के विरोध में जनता का क्रोध सड़क पर आ गया और क्रोधित जनता ने डाकघरों, पुलिस थानों, रेलवे स्टेशनों आदि सत्ता के प्रतीकों पर हमला बोल दिया।
इस आंदोलन में उठे हिंसक जनविप्लव ने रेल की पटरियां उखाड़ दी, टेलीफोन के तार काट दिए और सरकारी इमारतों को आग के हवाले कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी- समानांतर सरकारों की स्थापना। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले, बंगाल के मिदनापुर जिले एवं बंबई के सतारा जिले में समानांतर सरकारों की स्थापना की गई जो ब्रिटिश सत्ता को सीधे चुनौती का प्रतीक साबित हुई और जिसने भारतीयों के मन में इस भावना को भर दिया कि अब ब्रिटिश साम्राज्य के जुए को उतार फेंकने का समय आ गया है।
गांधीजी एवं कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन की बागडोर अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली, राममनोहर लोहिया, ऊषा मेहता, सुचेता कृपलानी, बीजू पटनायक और जयप्रकाश नारायण जैसे योग्य अखिल भारतीय नेताओं ने भूमिगत रहकर संभाल ली थी। ये लोग पैसा और बम, हथियार, बारूद आदि सामग्री इक्कठा करते और देश भर में बिखरे गुप्त समूहों में बांटते थे।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता ही आमतौर पर इन गतिविधियों का नेतृत्व कर रहे थे। इस आंदोलन में युवाओं, महिलाओं, किसानों एवं मजदूरों ने बढ चढकर हिस्सा लिया। अच्छी बात यह रही कि बड़े जमींदारों ने सरकारी दमन में सहयोग नहीं किया और उन्होंने आंदोलन के प्रति तटस्थता का रूख अपनाया।
भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे अनोखी बात यह रही कि जब ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी से आंदोलन में हुई हिंसा की आलोचना करने के लिए कहा तो गांधीजी ने यह कहते हुए आलोचना करने से इंकार कर दिया कि इस हिंसा की ब्रिटिश सरकार स्वयं जिम्मेदार है। यह आंदोलन गांधीजी के लिए क्या मायने रखता हैं, इसकी सटीक व्याख्या गांधीजी का यह कथन करता हैं कि यदि कांग्रेस आंदोलन शुरू करने में देरी करेगी तो वह देश की बालू से कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे।
निस्संदेह यह बात सत्य हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन में मुसलमानों ने सहयोग नहीं किया और मुस्लिम लीग ने आंदोलन में कोई खास रुचि व्यक्त नहीं की परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता हैं कि मुस्लिम लीग के नेताओं ने कोई भी मुखबिरी नहीं की बल्कि कई स्थानों पर लीग द्वारा नेताओं को शरण प्रदान करने के उदाहरण भी सामने आए। वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ने आंदोलन के बहिष्कार का निर्णय लिया था, फिर भी उसके स्थानीय स्तर के नेताओं ने आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की।
इस आंदोलन को ब्रिटिश सरकार द्वारा बर्बरतापूर्ण ढंग से कुचल दिया गया। पुलिस और सेना की गोलीबारी में 10 हजार से अधिक लोग काल के मुख में समा गए। 1942 के अंत तक 60 हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका था, लगभग 26 हजार लोगों को सजा हुई और 18 हजार लोगों की भारत रक्षा नियम के तहत बंद किया गया। यद्यपि मार्शल लाॅ लागू नहीं किया गया था परंतु दमन उतना ही कठोर था जितना मार्शल लाॅ के अंतर्गत हो सकता था।
कहा जाता हैं कि किसी भी आंदोलन की सफलता इस आधार पर तय नहीं की जाती हैं कि वह आंदोलन अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहा या नहीं। इस संदर्भ में भारत छोड़ो आंदोलन भी अपवाद नहीं है। इस आंदोलन ने भारतीय जनता के मस्तिष्क से ब्रिटिश राज का खौफ निकालकर उनके ह्रदय में स्वतंत्रता का दीप जला दिया। अब भारतीय जनमानस का एकमात्र लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति बन गया। गुलामी का यह जीवन उन्हें जंजीर में जकड़े पशु के समान नजर आने लगा।
वहीं ब्रिटिश सरकार को भी इस आंदोलन के माध्यम से यह आभास होने लगा कि अब भारतीयों को अधिक समय तक अपनी अधीनता में रखना उनके लिए न केवल मुश्किल होगा बल्कि घातक साबित भी हो सकता है क्योंकि इस आंदोलन में गांधीजी के आह्वान पर भारतीय पुलिस, सेना और सरकारी कर्मचारियों द्वारा ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी निष्ठा के विपरीत जाकर आंदोलनकारियों का साथ देने के अनेक मामले देखे गए।
इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने समझौते की दिशा में चलना ही बेहतर समझा। भारत छोड़ो आंदोलन के लगभग 7 वर्ष एवं देश पर लगभग 200 तक राज करने के पश्चात आखिरकार ब्रिटिश सरकार द्वारा न चाहते हुए भी भारत को स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र घोषित करना पड़ा।
मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार