शहर अनलॉक जरूर हुआ है पर ‘आप’? सोचिएगा: डॉ सुनीता मिश्रा

कोविड-19 के केस कम हो रहे हैं। प्रशासन ने लॉकडाउन हटा दिया है और फिर से वही बेकाबू भीड़, गाड़ियों की रफ्तार, जाम और बिना मास्क के आजादी महसूस करते लोग, सचमुच मैं सोचने पर विवश हो गई कि साल भर से अधिक समय हो गया है, हम बातें तो बहुत बड़ी बड़ी करते हैं कि ऐसा लग रहा है हम सतयुग में आ गए, हमने घर में जीना सीख लिया, हमने सीमित संसाधनों में रहना सीख लिया, परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया, रिश्तों और परिवार की अहमियत पता लग गई, आदि-आदि अंतहीन अच्छी बातें।

पर क्या हुआ, बाजार खुलते ही कपड़ों, ज्वेलरी दुकानों मे भीड़, बाजारों में भीड़, राशन दुकानों में भीड़, सब्जी मंडी में भीड़, पेट्रोल पंप में भीड़, कुछ तो इंतजार किया होता, यह सोचा होता कि जरूरतमंदों को लेने दिया जाए हम एक दो दिन बाद चले जाएंगे, पर नहीं घर से निकलने की अकुलाहट ने कदम बाहर निकालने को मजबूर कर दिया। फिर कहां का नियंत्रण? कैसा नियंत्रण?

पिछले एक बरस में और सबसे अधिक अप्रैल महीने मे हम सबने बहुत कुछ सहा है। वो वीरानी, वो मौत का तांडव, वो सिसकियां, वो करुण क्रंदन, जिसने एक संवेदनशील इंसान को कई रातों तक जगाया है। एक ऐसा समय जिसमें हम दूर रह रहे किसी अपने के मदद के लिए खड़े न हो पाए।

उन पलों को याद करो तो मन धिक्कारता है। पर हम जीते जा रहे हैं। सकारात्मक होने का दिखावा कर रहे हैं। पर ऐसे समय मे भी हमने अपना भरपूर ध्यान रखा। कौन सा किराना दुकान आधा शटर गिराकर सामान बेच रहा है। कौन सा व्यक्ति हमारे ऐशोआराम की चीजों को घर पहुंच सेवा दे रहा है।ऑनलाइन चीजें घर मंगवाई। जरूरत से ज्यादा सामानों को बिना आवश्यकता के स्टोर कर लिया और जैसे ही बाजार खूला फिर निकल लिये। बताईये न हम कहां सुधरे हैं?

पड़ोस में पॉजिटिव निकला तो हमने खिड़कियों से झांका। पडो़स में मृत्यु हूई तो हमने कहा लॉकडाउन मे दिन भर घूमते हैं ये तो होना ही था। हमने ये कोशिश भी नहीं कि जानने कि वो क्यों निकला? पूरा परिवार जब पॉजिटिव था तो हमने ये नहीं सोचा कि उसके घर जाकर खाने की थाली रख आएं? उसे फोन पर ठीक होने का आश्वासन ही दे दें। सकारात्मक बातों से उनका मन बहला दें।

उल्टा उसके साथ मिलकर प्रशासन, सरकार को जी भर कोसा। क्या हम राजनीतिज्ञ हैं या कोई विरोधी दल? राष्ट्र प्रेम, विश्व बंधुत्व और सहिष्णुता का भाव हमारे अंदर नहीं है तो माफ कीजियेगा हम इंसान नहीं हैं और हमने पिछले बरस से लेकर अब तक कुछ नहीं सीखा।

अगर कुछ सीखा है तो बेकाबू भीड का हिस्सा न बनें, मास्क और दूरी का ध्यान रखें और जरूरत है तभी निकलें, क्योंकि शहर अनलॉक हुआ है जरूरी नहीं हम भी हो जाएं।

डॉ सुनीता मिश्रा
शिक्षाविद, साहित्यकार 
बिलासपुर, छत्तीसगढ़