सुजाता प्रसाद
नई दिल्ली
माननीय डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को आंध्रप्रदेश के तिरूत्तानी में हुआ था। उनकी पुण्य स्मृति में हम प्रतिवर्ष 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाते हैं। उनके प्रशंसकों और शिष्यों के आग्रह पर 1962 से ही शिक्षक दिवस की गौरवशाली परंपरा चली। टीचर्स डे यानी गुरुओं को तहे दिल से धन्यवाद देने का दिन, उन सभी बातों की सीख के लिए जिन्होंने हमें सही मायने में इंसान बनाया।
आपका यह मंतव्य था कि सही ढंग से दी गई शिक्षा से समाज की अनेक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। शिक्षक एक ज्ञान के दीप की भांति अपनी विद्या का प्रकाश फैला सकता है। गिरते हुए समाज का पालनहार व सुधारकर्ता शिक्षक ही होता है।
शिक्षण संस्थानों को तो वे तीर्थस्थल की संज्ञा दिया करते थे, जहां आचरण का संस्कार प्राप्त किया जाता है। छात्रों के लिए उनका आह्वान हुआ करता था कि वे उच्च बौद्धिक एवं नैतिक मूल्यों को अपने आचरण का हिस्सा बनाएं।
वर्तमान में शिक्षा की गुणात्मकता का ह्रास होता जा रहा है और गुरु शिष्य संबंधों की पवित्र परंपरा को ग्रहण लगता जा रहा है। आज बाजार की शक्तियों ने शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु की गुरुता को लघु बनाने के लिए कई हथकंडों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
आज के परिवेश में ये थोड़ा भी अस्वाभाविक नहीं है कि अध्यापक इतना प्रतिष्ठित नहीं है, जितना पहले कभी हुआ करता था। शिक्षक दिवस को बड़े ही धूमधाम से उत्सव की तरह मनाया जाता है।
आज़ इस अवसर पर शिक्षकों के प्रति महज़ चंद औपचारिक उद्गार व्यक्त कर दिए जाते हैं। अफ़सोस डॉ. राधाकृष्णन का शिक्षा के चौतरफ़ा विकास का सपना आज सिसकियां भर रहा है।
व्यावसायिकता के अंधी दौड़ में सपने और आदर्श विखंडित होते नज़र आ रहे हैं। उच्च शिक्षा विकृत व्यावसायिकता के बाजारीकरण का अंग बन चुकी है।
इतना ही नहीं शिक्षक भी खुद ही अपनी गरिमा भूलते जा रहे हैं और ऐसा करते हुए वे शिक्षा के पतन के जिम्मेवार भी हैं। गुरु शिष्य संबंध को लेकर आज़ के परिप्रेक्ष्य में तो स्थिति यह है कि रिश्तों की धुंधलाती दुनिया में मन के मजबूत बंधन में गांठ पड़ चुकी है।
दिल का रिश्ता भी अपनी पकड़ ढीली कर चुका है। पहले जहां मान सम्मान और प्यार ममता की भावना समयातीत हुआ करते थे, आज़ वहीं उन्हें संभालने के लिए अब कानून का सहारा लेना पड़ रहा है।
कभी गौरवशाली रही गुरु शिष्य परंपरा आज अपना मूल्य खोती जा रही है। मेरे विचार में शिक्षा के इस गिरते स्तर के लिए शिक्षकों के साथ साथ छात्र, वर्तमान सामाजिक व राजनैतिक परिवेश तथा अभिभावक भी जिम्मेवार हैं।
जहां शिक्षकों के एक समुदाय द्वारा कुव्यवस्था पनपाई गई है। वहीं अगर शेष शिक्षक अपनी सर्जनात्मक प्रवृत्ति को अपनाए रखें तो जरूर वे सम्मान के हकदार बनेंगे।
छात्रों को भी अपनी संस्कृति से सीख लेकर गुरुओं का सम्मान करना चाहिए। साथ ही अभिभावक भी अपने बच्चों में सुसंस्कृत संस्कार भरकर अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं। आज़ हमें लुप्त होते जा रहे गुरु शिष्य की पवित्र पावन परंपरा को बचाने की जरूरत है।
हमें शिक्षक दिवस महज़ एक रस्म अदायगी का दिन भर ना लगे, इसके लिए कुछ संकल्प एवं शपथ लेने की आवश्यकता है। जिससे कि शिक्षक दिवस सिर्फ औपचारिक ना बने और पुनः एक गरिमामयी स्वस्थ परंपरा की शुरुआत हो सके।